Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ वेदगो ७
पडीओ होंति । एत्थ भय-दुर्गुडाणमण्णदरे पवेसिदे छ होंति । दोसु वि पट्ठेसु स भवंति । वेद्गसम्माइडम्मि सम्मते पड्डे श्रट्ट होंति । तदो एदेसिं चउरहमुदीरणहाणाणं संजदासंजदो सामी होइ । 'एगादी तिगरहिदा' एदस्सस्थो - जहण्णदो एयपयडिमादिं कारण जा उकस्सदो सत्त पयडीओ ति ताव एदाणि द्वाराणि चिरदेसु होंति । णवरि तिगरहिदा कायव्या । कुदो १ तिराहमुदीरणङ्काणस्स अवताभावेण पडिसिद्धनादो । तदो एकिस्से दोराहं चदुराहं पंचण्डं दण्डं सत्तण्डं च उदीरणट्टाणाणं संजदा सामिणो होति त्ति एसो सुत्तस्थसंगहो । तत्थाणियद्विम्मि संजलणाणमेकदरं होणेकिस्से उदीरणद्वारा लग्भइ । तस्सेच अण्णदरवेदेण सह दोरिए । अपुव्यकरण- पमतापत्तसंजदेसु दोएहमणणदरजुगलेण सह चचारि भएण सह पंच, दुर्गुछाए सह छ। क्षीणदंसणमोहस्स पमत्तापमत्तसंजदस्स सम्म पविट्ठे सत्त होंति । संपहि एदासिं गाई चिहासष्ठुर्मुचरिणामस्थ पनि इसाम । तं जहा
१०० सामित्ता० दुविहो णिदेसो- श्रोषेण आदेसेण य । ओषेण दसहमुदीर कस्स ? अरणद० मिच्छाइट्टि । एव अट्ठ सत्त० उदीर० कस्स ? ० सम्माइ हिस्स मिच्चाइट्ठि० । ३० पंच० चत्तारि० दोएिण० एकिस्से उदीर ०
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से कोई एक युगल इस प्रकार ये पाँच उदीरणा प्रकृतियां होती हैं। तथा इनमें भय और जुगुप्सा में से किसी एक प्रकृतिका प्रवेश करने पर छह उदीरणा प्रकृतियां होती हैं और दोनों ही प्रकृतियों का प्रवेश करने पर सात उदीरणा प्रकृतियां होती हैं। तथा वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके सम्यक्त्व प्रकृतिका प्रवेश करने पर आठ उदीरणाप्रकृतियां होती हैं। इसलिए इन चार उदीरणास्थानों का संयतासंयत जीव स्वामी है। अब 'एगादी सिंगरहिदा' इस पदका अर्थ कहते है - जघन्यरूपसे एक प्रकृति से लेकर उत्कृष्टरूपसे सात प्रकृतियों तक ये स्थान त्रिरत जीवोंके होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि तीनप्रकृतिक स्थानसे रहित करना चाहिए, क्योंकि तीन प्रकृतिक उदीरणास्थानका अत्यन्त अभाव होनेसे उसका निषेध किया है। इसलिए एकप्रकृतिक, दोप्रकृतिक, चारप्रकृतिक, पांचप्रकृतिक, छह्मकृतिक और सातप्रकृतिक उदीरणास्थानोंके संयत जीव स्वामी होते हैं इस प्रकार यह सुत्रार्थका संग्रह है । उनमेंसे अनिवृत्ति गुणस्थान में चार संज्वलनों में से कोई एककी उदीरणा होकर एकप्रकृतिक उदीरणास्थान प्राप्त होता है । उसी जीवके अन्यतर वेदके साथ दाप्रकृतिक उदीरणास्थान प्राप्त होता है । अपूर्वकरण, प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत जीवोंमें दो युगलों में से किसी एकके साथ चार प्रकृतिक उदीरणास्थान प्राप्त होता है । भय के साथ पांचप्रकृतिक और जुगुप्साके साथ प्रकृतिक उदीरणास्थान प्राप्त होता है । तथा जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है ऐसे प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवके सम्यक्त्व प्रकृति के प्रविष्ट होने पर सातप्रकृतिक उदीरणास्थान होता है। अब इन गाथाओंका विशेष व्याख्यान करनेके लिए यहां पर उच्चारणाका अनुगम करके बतलाते हैं। यथा
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१००. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--- ओघ और आदेश । श्रघसे दशप्रकृतिक उदीरणास्थान किसके होता है ? अन्यतर मिध्यादृष्टि जीवके होता है। नौ, आठ और सातप्रकृतिक उदीरणास्थान किसके होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टिके होस।