Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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अयधवलासहिदे कसायपाहु
[ वेदगो तिएहं वेदाणं भय-दुगुंदाणं च जहाकम पत्यारं कादणेत्थ भएण सह एका चउवीसमार्गदर्शक भगोणासलीगाहियदुर्गुलरिहासह अण्णा २ । अण्णेगा भय-दुगुंलाहि विणा
सम्मत्तोदयावलंबणेण ३। एवं संजदेसु तिषिण चउवीसभंगा लभंति । पुणो खइगसम्माइडिम्मि उवसमसम्माइडिम्मि वा संजदासंजदम्मि भय-दुगुंछाहिं विणा पञ्चक्खाणकसायप्पवेसणेण अण्णेगा चवीसभंगसलागा लम्मा ४। एवमेदे चत्तारि चदुवीस भंगा पंचण्इं पवेसगस्स लद्धा भवति । एत्य सम्बभंगसमासो एत्तिो होइ ९६ ।
* छण्हं पयडीणं पवेसगस्स सत्त पउघीस भंगा।
८६. तं जहा-उवसमसम्माइडिस्स सहयसम्माइद्विस्स वा संजदस्स भयदुगंछाहि सह एगा चडचीस भंगसलागा १। संजदस्सेत्र वेदयसम्माहहिस्स भएण विरणा दुगुकाए सह विदिया २ । तस्सेव दुगुंछाए विणा भएण सह तदिया ३ । एवं संजदमस्सिऊण तिण्ण चउवीसभंगा लद्धा । पुणो उवसमसम्माइडिस्स खइयसम्माइटिस्स वा संजदासंजदस्स दुगुंछाए विणा पञ्चक्खाणकसाएण सह भयं वेदयमाणस्स चउत्थी चउवीसभंगसलागा ४ । तस्सेव भएण विणा पञ्चक्खाण-दुगुकाहिं सह पंचमी ५ । वेदगसम्माइविसंजदासंजदस्स भय-दुगुंछोदयविरहियस्स छट्टो चवीसभंगवियप्पो ६ । उवसंतदसणमोहणीयस्स खीणदसणमोइस्स वा असंजद
वेदोंका तथा भय और जुगुप्साका कमसे प्रस्तार करके यहाँ पर भयके साथ चौबीस भंगोंकी एक शलाका १, जुगुप्साके साथ उससे भिन्न दूसरी २ तथा भय और जुगुप्साके बिना सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयका अवलम्बन लेकर उन दोनोंसे भिन्न एक ३ इस प्रकार संयत जीवोंमें तीन चौबीस भंग प्राप्त होते हैं। पुनः झायिकसम्यग्दृष्टि या उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवके भय और जुगुप्सा के बिना प्रत्याख्यानावरण कषायके प्रवेश करनेसे अन्य एक चौबीस भंगरूप शलाका प्राप्त होती है ४ । इस प्रकार पाँच प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके चार चौबीस भंग प्राप्त होते हैं । यहाँ पर सब भंगोंका योग इतना होता है--९६ ।
* छह प्रकृतियों के प्रवेशक जीवके सात चौवीस भंग होते हैं।
१८६. यथा--उपशमसम्यग्दृष्टि या क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयत जीवके भय और जुगुप्साके साथ एक चौबीस भंगशालाका होती है-५। वेदकसम्यग्दृष्टि संयत जीवके ही भयके बिना जगुप्साके साथ दूसरी चौबीस भंगशलाका होती है २ । उसी संयत जीवके जगुप्साके बिना भयके साथ तीसरी चौबीस भंगशलाका होती है । इस प्रकार संयत जीवका आभय कर तीन चौबीस भंग प्राप्त हुए। पुनः उपशमसम्यग्दृष्टि या क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवके जुगुप्साके बिना प्रत्याख्यानावरण कपायके साथ भयका वेदन करते हुए चौथी चौबीस भंगशलाका होती है४। उसी जीवके भयक बिना प्रत्याख्यानावरण और जुगुप्साके साथ पाँचवी चौबीस भंगशलाका होती है -५। भय और जुगुप्साके उदयसे रहित वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवके छठी चौबीस भंगशलाका होती है-६। तथा जिसने दर्शनमोहनीयका उपशम किया है या दर्शन