Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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जयधवलासहिये कसायपाहुडे
[वेदगो ॐ तिमहं पयजीणं पवेसगो पत्थि।
७५. कुदो पुच्चुत्तदोपयडीणमुवरि अपुवकरणपविट्ठम्मि हस्सरदि-अरदिसोगाणमएणदरजुगलस्स अक्कमपवेसणेण तिएणमुदीरणट्ठाणस्सायुप्पत्तीदो।
* चाझं प्रयडीगायवेअगोवाहासागर जी महाराज
७६. अस्थि ति एत्थाहियारसंबंधो कायन्यो । तदो उक्सम-खइयसम्माइद्विपमत्तापमा संजदेसु. अपुव्वकरणे च हस्सरदि-अरदिसोगाणमएणदरजुगलेण सह अण्णदरवेद-संजलणपयडीओ घेत्तण चउएहं पवेसग्गस्स अस्थित्तं सिद्धं ।
* एत्तो पाए पिरंतरमस्थि जाव दसरह पयडीणं पवेसगो।
७७. चउराहं पवेसगमादि कादण जाव दसण्हं पयडीणं पवेसगो ति ताव एदेसि ठाणाणं पवेसगो णिरंतरमस्थि ति सुत्तस्थसंबंधो । एत्तो उवरि पत्थि मोहणीयस्स, उकस्सेणुदीरिजमाणपयडीणं दससंखाणइकमादो। एवं समुकित्तिदाणमुदीरणाद्वाणाणमेसा संदिट्ठी १,२,४,५,६,७,८,९,१० ।
एवमोघेण समुक्किचणा गया ।
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* तीन प्रकृतियोंका प्रवेशक जीव नहीं है।
७५. क्योंकि पूर्वोक्त दो प्रकृतियों के ऊपर अपूर्वकरणमें प्रवेश करते समय हास्य-रति और अरति-शोक इनमेंसे अन्यतर युगलके युगपत् प्रवेश करनेपर तीन प्रकृतिकस्थानकी उत्पत्ति नहीं होती है।
* चार प्रकृतियोंका प्रवेशक जीव है।
६७६. यहाँ पर 'अस्ति' इस पदका अधिकारवश सम्बन्ध कर लेना चाहिए। तदनुसार उपशमसम्यग्डष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत तथा अपूर्वफरण जीवके हास्य-रति और अरति-शोक इन दो युगलोंमेंसे अन्यतर युगलके साथ अन्यतर एफ वेद और अन्यतर एक संज्वलन प्रकृतिको लेकर चार प्रकृतियोंका प्रवेशकरूपसे अस्तित्व सिद्ध होता है।
___ * इससे श्रागे दस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके प्राप्त होने तक इन स्थानोंका प्रवेशक जीव निरन्तर है।
६७७. चार प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवसे लेकर दस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके प्राप्त होने तक इन स्थानोंका प्रवेशक जीव है इस प्रकार यह सूत्रार्थसम्बन्ध है। इसके ऊपर मोहनीय कर्मके उदीरणास्थान नहीं हैं, क्योंकि उत्कृष्वरूपसे उदीरणाको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियाँ दस संख्याको उल्लंघन नहीं करती हैं। इसप्रकार समुत्कीर्तना अनुयोगद्वारके आश्रयसे कहे गये उदारणास्थानोंकी यह संदृष्टि है-१, २, ४, ५, ६,७,८,६, १० ।
इस प्रकार श्रोषसे समुत्कीर्तना समाप्त हुई ।