Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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उत्तरपयविउदीरणाम अणियोगद्दार परूवणा
६ ६७. काला० दुरिहो णि० - ओघे० प्रादेसे० । श्रघेण अट्ठावीसंपयडीणं उदीर० सव्वद्धा । णवरि सम्मामि० जह० अंतोमु०, उक० पलिदो० श्रसंखे ०. मांगो। एवं सव्वर१य० । वरि इत्थिवे० - पुरिस० णत्थि । तिरिक्खेसु ओषं । एवं पंचि०तिरिक्खतिए । वरि पज० इत्थिवेदो गत्थि । जोगिणी० पुरिस०यंस० णत्थि । पंचि०तिरिक्ख अपज० मिच्द० सोलसक० सत्तणोक० उदीर ० । सव्वद्धा । मसतिए पंचि०तिरिक्खतिथभंगो । वरि सम्मामि० उदीर० जह० उप० अंतोमु० । मपुसअपअ० मिच्छ० सय० जह० खुद्दाभव० । सोलसक०इणोक० जह० एयसमश्र, उक० दो वि पलिदो० श्रसंखे० भागो । देवेसु श्रोषं । वरि पर्वसः यत्थि । एवं भवण० वाण० जोदिसि० सोहम्मीसाण० । एवं चैव श्री सुविधा इति णत्थि । अणुद्दिसादि सच्चठ्ठा सकुमारादि जाव एवमेवार्त्ति चि सम्म० - बारसक० - सत्तणोकः सच्वद्धा । एवं जान० ।
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मार्गणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ — यहाँ इतना ही वक्तव्य है कि सम्यक्त्वके उदीरक जीव एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्धात नहीं करते, इसलिए इसके उदीरक जीवोंका अतीत स्पर्शन मात्र प्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है ।
६७. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है। किन्तु इतनी विशेषता है कि समयमिथ्यात्व के उदीरक जीवोंका जघन्य काल श्रन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदीरणा नहीं है । तिर्यों में शोधके समान कालका भंग हैं । इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि पहलेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त स्त्रीवेद्रकी उदीरणा नहीं है और पचेन्द्रिय तिर्यख योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकबेदी उदीरणा नहीं है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकाम मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायों के उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है। मनुष्यत्रिमें पचेन्द्रिय निर्यात्रिकके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्व के उदीरक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व और नपुंसकवेदके उदीरक जीवोंका जघन्य काल तुल्लकभव प्रमाण है, सोलह कपाय और छह नोकपायोंका जघन्य काल एक समय हैं तथा उत्कृष्ट काल दोनों प्रकार की प्रकृतियोंके उदीरकों का पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है। देवोंमें ओघ के समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसक वेद की उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म और ऐशान देवों में जानना चाहिए । सनत्कुमारसे लेकर नौ मैवेयक तकके देवोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए | किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि तक के देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकपायोंके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान सान्तर मार्गणा है । उसे ध्यान में रखकर यहाँ मोसे सम्यग्मिथ्यात्व के उदीरक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके
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