Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाता है। यहां साधकों की अनादिकाल से प्रवाहमान् संसार-अवस्था समाप्त हो जाती है। वे निरंजन, निराकारमय अपने स्वरूप के स्वामी बन जाते हैं, जो धर्मसाधना, ध्यान तथा योग-साधना का चरम लक्ष्य है।20
आगे, गाथा क्रमांक तिरासी से लेकर अठासी तक में अयोगी-अवस्था की विशेषताओं को बताया गया है। अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन के सन्दर्भ में बताया गया है कि शुक्लध्यानी शुक्लध्यान से सुवासित हो, ध्यान की क्रियाएं समाप्त करने के बाद कर्मागम के कारण होने वाले दुःख, संसार की अशुभरूपता, जन्म-मरणरूप भव-भ्रमण और चेतन-अचेतन वस्तुमात्र की नश्वरता (वस्तुविपरिणाम)- इन चार अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता है।
इसके पश्चात् गाथा क्रमांक उनब्बे से लेकर तिरानवे तक लेश्या, लिड्.ग, फलादि को परिभाषित किया गया है। प्रथम के दो शुक्लध्यान, शुक्ललेश्या, ' तीसरा परमशुक्ललेश्या में और अपनी अविचलता, अडिगता में पर्वत को भी जीत लेने वाला वह साधक चौथे शुक्लध्यान में लेश्याओं से परे होता है, क्योंकि इस शुक्लध्यान में मन 'अमन' बन जाता है, अर्थात् उसमें लेश्या होने का प्रश्न ही नहीं होता है।
__ लेश्या के विवेचन के पश्चात् ग्रन्थ में अवध, असम्मोह, विवेक तथा व्युत्सर्गरूप शुक्लध्यान के चार लक्षणों पर प्रकाश डाला गया है।
__ यहां ग्रन्थकार जिनभद्रगणि शुक्लध्यान के परिणाम (फल) का वर्णन करते हुए बताते हैं कि शुभकार्यों का फल देवसुख है, जो शुभानुबन्धी धर्मध्यान का फल है। विशेष रूप से, जो शुभ कार्यों के कारण अनुत्तर-विमान के सुखों की प्राप्ति होती है, वे प्रथम के दो शुक्लध्यान के फल हैं। अन्त के दो शुक्लध्यानों का फल तो अव्याबाध सुख, अनन्तानन्त सुखानुभूति, अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति है। इस प्रकार शुक्लध्यान के विवरण की चर्चा को समाप्त करते हुए ग्रन्थकार द्वारा आगे गाथा क्रमांक छियानवे से लेकर एक सौ दो तक में, धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान मोक्ष के हेतु क्यों हैं तथा किस कारण से यहां उनकी महत्ता का मूल्यांकन किया- इस सन्दर्भ में अलग-अलग प्रकार के उदाहरणों
अह खंति-मद्दव .. .............. ...ज्झाणं परम सुक्कं ।। - ध्यानशतक, गाथा 69-82.. 21 पढम जोगे जोगेसु.................. .वत्थणं विपरिणामं च ।। - ध्यानशतक, गाथा 83-88.
सुक्काए लेसाए ...................... सुहाणुबंधीणि धम्मस्स।। - ध्यानशतक, गाथा 89-93.
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