Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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स्थिरता में सहायक है, इसलिए आभ्यन्तर - तपों में स्वाध्याय के बाद ध्यान को स्थान दिया गया है।
जिस प्रकार कोई मनुष्य मजबूत रस्सी के सहारे दुर्गम स्थान पर पहुंच जाता है, उसी प्रकार साधक भी वाचना, पृच्छना आदि के आलम्बन से शुद्धध्यान में आरूढ़ हो जाता है, अथवा ध्यान का साधक सूत्रों का सहारा लेकर श्रेष्ठध्यान तक जा पहुंचता है।
ध्यान का मूल लक्ष्य तो मन, वचन और काया के योगों का निरोध है, जो क्रमानुगत होता है। ध्यातव्य - द्वार के अन्तर्गत ध्यातव्य के चार प्रकारों को परिभाषित किया गया है। धर्मध्यान के आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानविचय - इन चार अंगों के माध्यम से साधक शुभाशुभ कार्यों की परिणति का ज्ञाता बनकर, संसार के परपदार्थों के प्रति आसक्ति का त्याग कर आत्मा को अलौकिक धर्म में स्थिर कर देता है ।
कषायरहित अथवा प्रमादरहित ध्याता अनित्यादि भावना का चिन्तन करता हुआ धर्मध्यान में रत रहता है। इस प्रकार, धर्मध्यानी तीन प्रशस्त लेश्याओं, अर्थात् पीत, पद्म तथा शुक्ल लेश्याओं से युक्त होता हैं। आगे, ग्रन्थकार धर्मध्यान के लिङ्ग, फलादि का उल्लेख तो शुक्लध्यान के अन्तर्गत करते हैं, किन्तु यहां धर्मध्यान के उपसंहार में धर्मध्यानी को दान, शील, तप, कीर्त्तन, विनय, श्रुत और संयम में रत रहने का मार्गदर्शन करते हुए ग्रन्थकार जिनभद्रगणि धर्मध्यान के प्रसंग को समाप्त करते हैं।19 आगे गाथा क्रमांक उनहत्तर से बंयासी ( 69 - 82 ) तक ग्रन्थकार ने शुक्लध्यान की भी चर्चा की है
धर्मध्यान के बाद की अवस्था को शुक्लध्यान कहते हैं। शुक्लध्यान में एकाग्रतापूर्वक लीन साधक तीन भुवन के परपदार्थों को विषय बनाने वाले अपने मन को क्रमशः संकुचित करता हुआ सूक्ष्म में स्थिर रहता है और फिर शुक्लध्यान के अन्तिम दो चरणों में मनविहीन होता हुआ 'अमन' बन जाता है। धर्मध्यान के समान शुक्लध्यान के भी बारह द्वार हैं। पूर्व में ग्रन्थकार ने धर्मध्यान में लिङ्ग, फल आदि का वर्णन नहीं किया है, क्योंकि शुक्लध्यान के अन्तर्गत ही धर्मध्यान के लिंग, फलादि के सन्दर्भ में चर्चा की गई है। शुक्लध्यान के द्वारा प्रकम्पित मन निष्प्रकम्पित होने, संकल्प-विकल्प से ग्रस्त मन निर्विकल्प होने, अशान्त मन शान्त होने तथा मानसिक, वाचिक एवं कायिक-योगों की पूर्णतया निरोध की स्थिति प्राप्त होती है। यहां ग्रन्थकार ने शुक्लध्यान
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आलंबणाइवायण - पुच्छण ..सुल - सीलसंजमरओ धम्मज्झाणी मुणेयव्वो ।।
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ध्यानशतक, गाथा - 42-69
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