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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
(1) पात्र - आहार पानी ग्रहण करने का साधन (2) पात्रबन्ध-(झोली) जिसके अन्दर पात्र रखकर-भिक्षा लाई जाय (3) पात्र-स्थापनक - पात्र रखने का छोटा वस्त्र (4) पात्र केसरिका - पात्र प्रमार्जन करने का कोमल वस्त्र (5) पटलक - खाली पात्रों को बांधने के समय उनके बीच में दिये जाने वाले वस्त्र (6) रजस्त्राण - पानी छानने या उसे ढकने का वस्त्र (7) गोच्छक - प्रमाणनिका (8-10) तीन चादर (11) रजोहरण - जीवरक्षा हेतु (12) मुखवस्त्रिका - यतना के लिये मुख पर बांधा जाने वाला वस्त्र (13) मात्रक (14) कमढक - चोलपट्टक स्थानीय वस्त्र, शाटिका (15) अवग्रहानन्तक - गुह्यस्थानाच्छादक वस्त्र (16) अवग्रहपट्टक - लंगोटी के ऊपर कमर पर लपेटने का वस्त्र (17) अझैसक - आधी जांघों को ढकने वाला जांघिया जैसा वस्त्र (18) चलनिका - अझैसक से बड़ा, घुटनों को भी ढंकने वाला वस्त्र (19) अभ्यंतर निवसनी - आधे घुटनों को ढकने वाली (20) बहिर्निवसनी - पैर की ऐड़ियों को ढकने वाली (21) कंचुक - चोली (22) औपकक्षिकी - चोली के ऊपर बांधी जाने वाली (23) वैकक्षिकी - कंचुक और औपकक्षिकी को ढकने वाली (24) संघाटी - वसति में पहने जाने वाली (वर्तमान में दुपट्टा) (25) स्कन्धकरणी - कन्धे पर डालने का वस्त्र।
उक्त 25 प्रकार की उपधि में श्रमणों के लिये प्रारंभ की 14 उपधि ही ग्राह्य है, शेष अग्राह्य। भाष्यकार ने स्कन्धकरणी के साथ रूपवती साध्वियों को 'कुब्जकरणी' रखने या बांधने का भी विधान किया है। इसका अभिप्राय है कि रूपवती साध्वी को देखकर कामुक पुरूष चलचित्त न हो, अतः उसे विकृतरूपा बनाने के लिये पीठ पर वस्त्रों की पोटली रखकर बांध देते हैं, जिससे कि वह कुब्जा दिखाई दे। श्रमणी के वस्त्रैषणा और पात्रैषणा संबंधी संपूर्ण विधियों पर आगमकारों ने विस्तृत विचारणा की है।229
1.19.1.3 वसति के नियम
श्रमण-श्रमणी दोनों के लिये धान्य-बीजादि बिखरे स्थान पर ठहरना वर्ण्य है, अचित शीत, जल या उष्णजल के घड़े पड़े हों अग्नि या दीपक सारी रात्रि जलते हों वहाँ भी ठहरना उसके लिये निषिद्ध है। जिस मकान में खाद्य पदार्थ यत्र-तत्र बिखरे पड़े हों वहाँ थोड़ी देर भी ठहरना निषिद्ध है। श्रमणियों को धर्मशाला, चारों ओर से अनावृत स्थान पर, वृक्ष या आकाश के नीचे ठहरने का भी निषेध किया है, श्रमणों को इसका निषेध नहीं है। वर्षावास के अतिरिक्त श्रमण जहाँ एक मास रह सकता है वहाँ श्रमणियाँ उपयुक्त स्थान न मिलने पर दो मास भी रह सकती
हैं।230
1.19.1.4 केशलोच
जैन श्रमण और श्रमणी की कठोर आचार-संहिता में केशलोच भी एक है, वे बाल कटवाते नहीं हैं, बल्कि वर्ष में दो बार उन्हें लोचते हैं। यह प्रक्रिया सामान्य ढंग से जीवन व्यतीत करने वालों को तो कष्टदायी होती है, किंतु सांसारिक माया-मोह का त्याग करने वाले जैन श्रमण-श्रमणियों के लिये यह साधारण क्रिया है और त्याग, तप, संयम व स्वावलम्बन का परिचायक है।
229. दृष्टव्य-आचारांग सूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्ययन 5-6 230. बृहत्कल्प सूत्र उद्देशक-2 सूत्र 1-24
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