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तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ
उल्लेख है कि आपके प्रभावशाली उपदेश से 40-50 भाई बहन दीक्षा हेतु तैयार हुए। आपने कई साध्वियों को शिक्षित किया जो आगे जाकर अग्रगण्या बनीं। तेरापंथ धर्मसंघ में आपका अनुपम स्थान रहा है, आपने तेरापंथ संघ की नींव को त्याग- तपस्यादि की प्रेरणा से जिस प्रकार सुदृढ़ किया, वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित करने योग्य है। आपके सान्निध्य में कई साध्वियों ने पानी या आछ के आधार से सुदीर्घ तपस्या के कीर्तिमान स्थापित किये। इस प्रकार आपकी प्रेरक क्षमता अद्भुत थी।
7.4.10 श्री नन्दूजी 'लावा' (सं. 1873-1941) 2/36
आपका जन्म मेवाड़ 'लावा' ग्राम निवासी श्री फतेहचंद जी बंवलिया के यहां हुआ। आप महान प्रभावक साध्वी हुईं, आपके उपदेश से एवं श्रीमुख से पांच बहिनों ने दीक्षा ली-श्री सुवटांजी (सं. 1993), श्री नानूजी (सं. 1923), श्री गंगाजी (सं. 1933), श्री नानूजी (सं. 1938), श्री कसुंबाजी (सं. 1938)। तेरापंथ संघ की स्थापना के पश्चात् आप सर्वप्रथम कुमारी कन्या के रूप में दीक्षित हुईं। पचपदरा में आप 7 वर्ष स्थिरवासिनी रहीं, वहीं आपका समाधिपूर्वक पंडितमरण हुआ। 7.4.11 श्री कमलूजी 'चंगेरी' (सं. 1874-1902 ) 2/38
आप मेवाड़ के हीरजी कोठारी की धर्मपत्नी थी। दोनों पति-पत्नी दीक्षित हुए थे। दीक्षा के पश्चात् आपने अनेक आगमों का वाचन, हजारों पद्य कंठस्थ एवं व्याख्यान कला में निपुणता प्राप्त की, शासन की खूब प्रभावना की। आप द्वारा कई बहनों को दीक्षा देने का उल्लेख है। 'पुर' में भादवा वदि 7 को संथारे सहित स्वर्गवास हुआ। 7.4.12 श्री चक्रूजी 'गंगापुर' (सं. 1877-90) 2/44
आप मेवाड़ प्रान्त के 'चहावत' गोत्रीय श्री दीपोजी की पत्नी थी। गंगापुर में ही पति-पत्नी दोनों ने ज्ये. शु. 13 को दीक्षा अंगीकार की। आप स्वभाव से शांत, मधुर व्यवहारी व विनयवती थीं। तपस्विनी भी थीं, अनेकों उपवास, बेले, तेले, चोले किये, एक बार 62 दिन की तपस्या भी की। अंतिम समय संलेखना में पांच तेले, चार चौले के साथ संथारा कर समाधिमरण को प्राप्त हुईं। आप आचार्य भारीमलजी की अंतिम शिष्या हुईं।
7.5 तृतीय आचार्य श्री रायचंदजी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ (सं. 1878-1908)
आचार्य रायचंदजी तेरापंथ-संघ के यशस्वी आचार्य थे। आचार्य भारमलजी के स्वर्गवास के पश्चात् सं. 1978 तक उन्होंने धर्मसंघ का कुशलतापूर्वक संचालन किया। आचार्य श्री रायचंदजी के शासनकाल में साध्वियों की अभूतपूर्व वृद्धि हुई। आचार्य भिक्षु एवं भारीमलजी के युग में जहां 56 और 44 साध्वियाँ दीक्षित हुईं, वहां आचार्य रायचंदजी के समय168 साध्वियों ने दीक्षा अंगीकार की। इनमें से 164 साध्वियों ने संयम का यथोचित पालन कर अंत में समाधिपूर्वक पंडितमरण प्राप्त किया एवं 4 साध्वियाँ गण से पृथक् हुईं। इनमें 10 कुमारी कन्याएं, 4 सुहागिन, 4 पति सहित और 150 पतिवियोग के पश्चात दीक्षित हुईं। कुछ उग्र तपस्विनी साध्वियाँ हुईं, जिन्होंने छहमासी आदि तप
4. शासन-समुद्र, भाग-7
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