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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
सगाई को ठुकराकर आचार्य रायचंदजी के द्वारा 'फूल्यां' ग्राम में फाल्गुन कृष्णा 13 को दीक्षित हुईं। आप साधुचर्या में अप्रमत्त, विनम्र, साहसी, चतुर एवं गण के प्रति अटूट निष्ठावान् थीं। सं. 1928 से आप अग्रगण्या के रूप में विचरण करती थीं, आपका सिंघाड़ा बड़ा प्रभावशाली माना जाता था आपने अनेकों को गुरुधारणा करवाई, कइयों को श्रावक के व्रत ग्रहण करवाये, कइयों को सुलभबोधि बनाया, तथा 10 बहिनों को दीक्षा प्रदान की- श्री गेंदकंवर जी (1928), श्री फूलांजी (1928), श्री रतनकंवरजी (1935), श्री नोजांजी (सं. 1936), श्री सोनांजी (1937), श्री गीगांजी (1937), श्री कुन्नणांजी (1938), श्री गोगांजी (1941), श्री सुजांजी (1945), श्री जोतांजी (1947)। आपकी उल्लेखनीय विशेषता - आप आचार्य श्री रायचंदजी के समय दीक्षित हुईं, 73 वर्ष के संयम पर्याय में छह आचार्यों का शासनकाल देखकर आठवें आचार्य श्री कालूगणी के समय जोधपुर में दिवंगत हुईं।
7.5.7 तृतीय साध्वी प्रमुखा श्री नवलांजी 'पाली' (सं. 1904-54 ) 3/140
आपका जन्म सं. 1885 मारवाड़ में 'रामसिंहजी का गुड़ा' के निवासी श्री कुशालचंद जी गोलेछा के यहां एवं विवाह पाली निवासी श्री अनोपचंदजी बाफना के यहां हुआ। पति वियोग के पश्चात् आपने दृढ़ वैराग्यपूर्वक सं. 1904 चैत्र शुक्ल तृतीया को 19 वर्ष की अवस्था में आचार्य रायचंदजी से पाली में दीक्षा ग्रहण की। आपने प्रथम केश लुंचन स्वयं के हाथों से करके अपने साहसी व्यक्तित्व का सर्वप्रथम परिचय दिया। आपकी कंठकला, वचन - मधुरता, सुंदर व्याख्यान शैली, नीति-निपुणता से आकृष्ट होकर सं. 1942 पौष शुक्ला को जोधपुर में मधवागणी ने आपको साध्वी प्रमुखा पद पर नियुक्त किया। आप अपनी समता, सहनशीलता, पुरुषार्थ परायणता एवं स्वाध्याय रुचि आदि गुणों के द्वारा चतुर्विध संघ में सम्माननीया हुईं। आप तपस्विनी भी थीं, सं. 1943 से 48 के मध्य आपने 23, 19, 8, 5 और 5 की तपस्या की, चातुर्मास में प्रायः पांच विगय का त्याग करती थीं। आपने ऋषिराय के साथ 3, जयाचार्य के साथ 13, मघवागणी के साथ 7, माणकगणी के साथ 3, इस प्रकार कुल 26 चातुर्मास आचार्यों की सेवा में किये। सं. 1954 आसाढ़ कृ. 5 को नौ प्रहर के संथारे के साथ बीदासर में आपका स्वर्गवास हुआ।
7.5.8 साध्वी उमांजी ( राजलदेसर 1907-73)3/157
आपका ससुराल राजलदेसर (थली) के बछावत गोत्र में तथा पीहर वहीं बैद गोत्रीय पिता श्री डूंगरसीदासजी के यहां था । पतिवियोग के बाद सं. 1907 में आपकी दीक्षा हुई। आप बड़ी तपस्विनी साध्वी थीं, आपने उपवास से लेकर बीस दिन तक क्रमबद्ध तप किया तथा चौले, 25 पचोले, एक बार 8, 12, 14, 16 उपवास, धर्मचक्र आदि तप किया। आपका साधनाकाल लगभग 66 वर्ष का रहा इस अवधि में आपको छह आचार्यों (आचार्य श्री रायचंदजी से कालूगणी तक) की सेवा का सुअवसर प्राप्त हुआ। सं. 1973 लाडनूं में आपका स्वर्गवास हुआ।
7.5.9 श्री सुंदरजी 'नाथद्वारा' (सं. 1907-43 ) 3/164
आपकी ससुराल नाथद्वारा (मेवाड़) के तलेसरा परिवार में तथा पीहर राजनगर के मादरेचा परिवार में था । आपने पतिवियोग के पश्चात् साध्वी श्री दीपांजी आषाढ़ शुक्ला 1 के दिन नाथद्वारा में दीक्षा अंगीकार की। आप उत्कट तपस्विनी और वैराग्यवान साध्वी थीं। आपने अपने संयमी जीवन में 423 उपवास, 26 बेले, 35 तेले, 33 चौले, 8 पचोले एक 6, तीन बार 7, एक अठाई, चार बार नौ, दो बार 10, एक 12, एक 13, 14, पांच 15, एक 18, एक 25, एक 28, आठ 30, एक 33, एक 45, एक 120, एक 157, तीन 180 और एक 184 का तप
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