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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास चौमासी तप किया। तप के कुल दिन 3165 थे। संवत् 2017 मृगसिर शुक्ला 1 को राजनगर में स्वर्गवास हुआ। 7.10.21 श्री इन्द्रजी 'फतेहपुर' (सं. 1975-99) 8/73
आप बोहरा गोत्रीय श्री सोहनलालजी से ब्याही गई थीं। पतिवियोग के पश्चात् 20 वर्ष की वय में श्री इन्द्रजी 'बीदासर' वालों के साथ ही आपकी भी दीक्षा हुई। आप भी बड़ी तपस्विनी थीं। आपने उपवास से 15 दिन तक लड़ीबद्ध तप किया, उसमें 1621 उपवास 250 बेले, 35 तेले, 21 चोले, 25 पचोले, 5 बार छह और सात, 8 अठाई, शेष तपस्या एक बार की। सं. 1999 में सुजानगढ़ में आपका स्वर्गवास हुआ।
7.10.22 श्री सुन्दरजी 'लाडनूं' (सं. 1976-2036 ) 8/82
संवत् 1964 श्रावण कृष्णा 3 को आपका जन्म श्री वृद्धिचंदजी फूलफगर के यहां हुआ। 12 वर्ष की लघुवय में ही वैशाख शुक्ला 1 को आचार्य कालूगणी द्वारा राजगढ़ में दीक्षा ग्रहण की। आपकी एक सगी बहन और चार बुआ की बेटी बहनें भी बाद में दीक्षित हुईं। आप आगम स्तोक, व्याख्यान, व्याकरण आदि में निष्णात तथा लिपिकला में भी पारंगत थीं, आपने लगभग 100 छोटी-बड़ी प्रतियां लिखीं। आप साहसी, निर्भीक, पापभीरु आदि अनेक गुणों से अलंकृत थीं। सं. 1986 से आपने अग्रगण्या के रूप में लोगों में तात्त्विक व आध्यात्मिक प्रशिक्षण द्वारा नई जागृति पैदा की। आप प्रतिवर्ष तीन- साढ़े तीन लाख गाथाओं का स्वाध्याय करती थीं। मृगशिर शुक्ला 3 को पीपाड़ में समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुईं।
7.10.23 श्री संतोकांजी 'चूरू' (सं. 1976-2010 ) 8/83
आपका ससुराल चूरू में तथा पीहर थैलासर के हीरावत गोत्र में था। पतिवियोग के पश्चात् पुत्री मनोरांजी को लेकर आचार्य श्री कालूगणी से हिसार में वैशाख शुक्ला 11 को दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के समय आपकी उम्र 34 वर्ष की थी। लगभग 34 वर्ष ही आपने संयम पर्याय का पालन किया। इस कालावधि में आपके तप की सूची इस प्रकार है- उपवास 2760, बेले 592, तेले 96, चोले 35, पचोले 27, 6, 7 और 8 एकबार किया। कई तपस्याएँ आपने चौविहार से की। तप के साथ अभिग्रह भी करती थीं। चैत्र कृ. 13 को शार्दूलपुर में आपका पंडितमरण हुआ।
7.10.24 श्री संतोकजी 'लाडनू' (सं. 1977 स्वर्गवास - सं. 2042-60 के मध्य) 8/93
आपका जन्म चूरू में श्री जंवरीमलजी बैद के यहां हुआ। 11 वर्ष की लघुवय में लाडनूं में श्री हीरालाल जी भूतोड़िया से विवाह हुआ। वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित होने पर 19 वर्ष की अवस्था में बीदासर में चैत्र शुक्ला नवमी के दिन दीक्षा ग्रहण की। आप कलाप्रेमी थीं, कई रजोहरण, पुट्ठे, पटरियां, लकड़ी के उपकरण आदि बनाये। आप सिलाई भी बड़ी बारीक और सुंदर करती थीं। आपने ही सर्वप्रथम पैरों की रक्षा के लिये मोटे कपड़े की मोचड़ी बनाकर नीचे टायर लगाया, एवं पदत्राण हेतु आचार्यश्री को अर्पित किया, आचार्य श्री तुलसी ने तबसे अपने संघ को इस प्रकार के पदत्राण उपयोग करने की आज्ञा दी। लिपिकला व चित्रकला का विकास करते हुए करीब 500 पृष्ठ लिखे व 30-35 चित्र बनाये । शल्य चिकित्सा में भी आप निपुण थीं, आपने साध्वी प्रमुखा कानकंवरजी की आंख के मोतियाबिंद का ऑपरेशन किया, उन्हें आंख से दिखाई देने लगा। साध्वी भीखांजी को लाडनूं
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