Book Title: Jain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Author(s): Vijay Sadhvi Arya
Publisher: Bharatiya Vidya Pratishthan

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Page 1049
________________ अध्याय आठ उपसंहार श्रमणियों की गौरवमयी गाथाओं पर दृष्टिक्षेप करने से यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि आदिकाल से ही श्रमण संस्कृति को सिंचित करने और पल्लवित पुष्पित रखने में जैन श्रमणियों का महान योगदान रहा है। भारत के विभिन्न धर्म एवं दर्शनों में यद्यपि वैयक्तिक रूप से नारी-साधिकाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं, किंतु श्रमणी संघ का यह व्यवस्थित एवं परिष्कृत रूप जैनधर्म में ही दिखाई देता है, अन्यत्र नहीं। बौद्ध धर्म यद्यपि विश्व के अनेक देशों में व्याप्त है तथापि एक दो देशों को छोड़कर अन्यत्र भिक्षुणी संघ की कोई व्यवस्था नहीं है। ईसाई धर्म में नंस (Nuns) की कुछ संस्थाएँ हैं, किन्तु वे सब वैयक्तिक तौर पर स्थापित आचार-विचार एवं जीवन-शैली से संचालित हैं। जैन धर्म की श्रमणियाँ सर्वत्र महाव्रतों की एक डोर में बंधी हुई, तप-त्यागमय निष्परिग्रही जीवन जीती हुई दृष्टिगोचर होती हैं। आज देश में जैनधर्म की 10277 श्रमणियाँ हैं, सभी भारत भर में पैदल विहार करती हुई विचरण कर रही हैं। उनके आहार, विहार, आवास, केशलुंचन आदि नियम प्रायः एक समान हैं। जैन श्रमणियाँ अध्यात्म प्रधान जीवन की श्रेष्ठतम संवाहिका हैं। उनमें सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व निर्माण कर सकने की क्षमता है, अतः इन्हें 'श्रमण संस्कृति की रीढ़' कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। श्रमणियों ने नारी समाज के उत्थान और विकास में जो भूमिका निर्मित की है, उससे आज कोई भी अपरिचित नहीं है। परूषों की अपेक्षा दगने-तिगने उत्साह से नारियों ने श्रमण धर्म में प्रवेश कर उसकी गणवत्ता में वृद्धि की है। नारी के लिए अभेद्य कहे जाने वाले संयम दुर्ग में प्रवेश कर उन्होंने अपनी दक्षता, क्षमता और शौर्यता का परिचय दिया है । व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति में श्रमणियों ने अपनी बुद्धि, विवेक और प्रतिभा का पूरा-पूरा उपयोग किया है। श्रमणियों का सम्पूर्ण इतिहास उनकी यशोगाथाओं से भरा पड़ा है। प्राचीन काल की साध्वियाँ तप-त्याग की साक्षात् प्रतिमाएँ थी। ब्राह्मी सुन्दरी आदि का तपोमय जीवन किसी परिचय के अपेक्षा नहीं रखता। ब्रह्मतेज की जीवंत मूर्ति राजीमती, धर्म की धुरा का संवहन करने वाली बृहत् श्रमणी संघ की संचालिका चंदनबाला, शांति की सूत्रधार मृगावती, तत्त्वशोधिका जयंति, लोकहृदय में प्रतिष्ठित शक्तिस्वरूपा सीता, अनुराग से विराग का दीप जलाने वाली देवानन्दा अचल श्रद्धा की प्रतीक सुलसा, तपस्या के प्राञ्जल कोष की स्वामिनी कालि आदि रानियों की यशोगाथाएँ इतिहास के स्वर्णम पृष्ठों पर चिरस्थायी बन गई हैं। महावीरोत्तरकाल में जम्बू कुमार के साथ अपने अविचल प्रेम का निर्वहन करने वाली समुद्रश्री आदि आठ कोमल श्रेष्ठी कन्याएँ भोग योग्य युवावस्था में सुख सुविधाओं को ठुकराकर जो अद्वितीय अनुपम आदर्श उपस्थित करती हैं, वह इतिहास के पन्नों पर अमिट है। तप संयम की उत्कृष्ट आराधना कर भगवद्पद को प्राप्त करने वाली पुष्पचूला अपने ही बोध प्रदाता गुरू आचार्य अन्निकापुत्र की मार्गदृष्टा बनी। अद्वितीय प्रतिभा की धनी, श्रुतसंपन्ना यक्षा यक्षदत्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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