Book Title: Jain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Author(s): Vijay Sadhvi Arya
Publisher: Bharatiya Vidya Pratishthan

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Page 1051
________________ उपसंहार श्वेताम्बर सम्प्रदाय में श्री उद्योत श्रीजी ने विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने के लिए श्री सुखसागर जी महाराज के साथ क्रियोद्धार में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रवर्तिनी पुण्यश्रीजी के वैराग्य रस से ओतप्रोत उपदेशों आकृष्ट होकर 116 मुमुक्षु आत्माएँ दीक्षित हुई। जैन कोकिला प्रवर्तिनी विचक्षणश्रीजी तथा बहुआयामी व्यक्तित्त्व की धनी श्री सज्जन श्रीजी, मनोहर श्री जी, मणिप्रभाश्री जी आदि साध्वियों का संघ में विशिष्ट स्थान है। तपागच्छ की प्रवर्तिनी शिवश्रीजी, तिलक श्री जी, तीर्थश्री जी, पुष्पाश्रीजी, रेवती श्री जी, राजेन्द्र श्री जी, मृगेन्द्रश्री जी, निरंजनाश्रीजी, मलयाश्री जी आदि श्रमणियाँ विशाल श्रमणी संघ की संवाहिका रहीं। इनमें संख्याबद्ध श्रमणियाँ ऐसी हैं, जिन्होंने वर्धमान तप की 100 ओली पूर्ण कर तप की ज्योति आत्मा में प्रज्वलित की। इनके अलावा श्री दमयन्ती श्री जी, मोक्षज्ञाश्री जी, चिद्वर्षा श्री जी, देवेन्द्र श्री जी आदि कुछ साध्वियाँ तो तप की जीती जागती प्रतिमा ही नजर आती हैं। कई साध्वियाँ विशुद्धप्रज्ञा सम्पन्ना हैं, जैसे मयणाश्री जी, डॉ. निर्मलाश्री जी आदि शतावधानी हैं, प्रवर्तिनी लक्ष्मीश्री जी आशुकवियित्री थीं। निरंजनाश्री जी संस्कृत प्राकृत, काव्य, न्याय आदि की उच्चकोटि की अध्येत्री हैं, श्री रत्नचूलाश्री जी अपने विशाल श्रमणी संघ में 'सरस्वतीसुता' के नाम से प्रसिद्ध हैं। महत्तरा श्री मृगावती जी अपनी विचक्षणता, विदग्धता, तेजस्विता, नवयुग निर्माण की क्षमता और उदार दृष्टिकोण से भारतभर में विख्यात हुई। प्रवर्तिनी कल्याणश्री जी ने अकेले 'डभोई' ग्राम में 60-65 मुमुक्षुओं को दीक्षित किया, श्री हर्षलताश्री जी ने अपने परिवार के 45 स्वजनों को संयम पथ पर आरूढ़ करवाया। इसी प्रकार त्रिस्तुतिक समुदाय में महत्तरा विद्याश्री जी, पार्श्वचन्द्रगच्छ की श्री खांतिश्री जी, अद्भुत समता की मिसाल श्री गुणोदया श्री जी आदि अनगिनत साध्वियाँ हैं, जिनकी महिमा गरिमा और प्रभाव अकथ्य है। अमूर्तिपूजक विचारधारा का अनुगमन करने वाली श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमणियाँ अपने उत्कृष्ट आचार पालन एवं अहिंसात्मक निराडम्बरपूर्ण जीवन व्यवहार लिए प्रसिद्ध हैं। ये श्रमणियाँ प्रमुख रूप से अध्यात्मनिष्ठ साधिका और शास्त्रज्ञा हुई हैं। अनेक श्रमणियाँ विशिष्ट व्याख्याता, जैन धर्म एवं दर्शन के गूढ़तम रहस्यों की अनुसंधातृ, उच्चकोटि की लेखिका एवं कवयित्री हैं। श्री सोहनकंवर जी, श्री शीलवती जी आगम ज्ञान की गहन ज्ञाता एवं अनेक धार्मिक संस्थाओं की प्रेरिका थीं। श्री पुष्पवती जी, श्री कुसुमवती जी, बहुमुखी प्रतिभा की धनी, साहित्यकर्त्री साध्वी थी। प्रवर्तिनी श्री यशकंवर जी ने जोगणिया माता पर होने वाली बलि प्रथा को बन्द करवाने का अभूतपूर्व कार्य किया। ऋषि संप्रदाय की प्रवर्तिनी श्री रतनकंवर जी ने भी महाराजा चतरसेन जी द्वारा दशहरे के दिन होने वाली भैंसे की बलि को सदा के लिए बंद करवाया था। प्रवर्तिनी श्री उज्ज्वलकुमारी जी की विद्वत्ता और विषय निरूपण शैली अद्वितीय थी, उनसे चर्चा वार्त्ता कर महात्मा गांधी जी असीम आनन्द का अनुभव किया करते थे। आचार्या चंदना जी राजगृही वीरायतन में रहकर अनेक लोकमंगलकारी एवं विशद् परिमाण में मानव सेवा के कार्य कर रही हैं। डॉ. मुक्तिप्रभा जी, डॉ. दिव्यप्रभा जी जैन धर्म व दर्शन के गूढ़तम रहस्यों की ज्ञाता एवं द्रव्यानुयोग तथा चरणानुयोग की व्याख्याता हैं। वाणीभूषण श्री प्रीतिसुधा जी अपनी सधी हुई सुमधुर वाणी से हजारों की संख्या में लोगों को व्यसनमुक्त कराने में सार्थक भूमिका निभा रही हैं, इनके द्वारा कई स्थानों पर गोरक्षण संस्थाएं भी स्थापित हुई हैं। पंजाब सम्प्रदाय में अठारहवीं सदी की साध्वी सीता जी द्वारा एक साथ 5000 लोगों ने माँस और मदिरा का त्याग किया था, खेमांजी ने 250 जोड़ों को आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत दिलवाया था। श्री ज्ञानांजी ने पंजाब की विच्छिन्न साधु-परम्परा की कड़ी को जोड़ने का अद्भुत कार्य किया। श्री शेरांजी ने आचार्य अमरसिंह जी महाराज और आचार्य सोहनलाल जी महाराज जैसी महान हस्तियों को जैनधर्म में दीक्षित कराया था। पंजाब श्रमणी संघ की प्रथम प्रवर्तिनी श्री पार्वतीजी महाराज हिन्दी साहित्य की प्रथम जैन साध्वी लेखिका हुई हैं, अनेक अन्य मतावलम्बी उनसे शास्त्रार्थ में पराजित होकर नतमस्तक हुए थे। श्री चंदाजी, श्री द्रौपदांजी, श्री मथुरादेवी जी, श्री मोहनदेवी जी आदि साध्वियों ने अपने उपदेशों से समाज की अनेक कुरीतियों को बन्द करवा कर स्थान-स्थान पर महिला सत्संग प्रारम्भ करवाये। श्री चंद्रकलाजी ने गाय की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का बलिदान किया था। श्री मोहनमाला जी, श्री शुभ जी, श्री हेमकंवर जी 989 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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