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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास ने 311, 265 और 251 दिन सर्वथा निराहार रहकर कठोर तपस्या की। प्रवर्तिनी श्री राजमती जी, श्री पन्नादेवी जी (टुहाना), श्री कौशल्या देवी जी आदि परम सहिष्णु, समता की साक्षात् प्रतिमूर्ति साध्वियाँ थी। कंठ कोकिला श्री सीता जी, वात्सल्यनिधि श्री कौशल्या जी 'श्रमणी', दृढ़ संयमी श्री मगनश्री जी, सर्वदा ऊर्जस्वित श्री स्वर्णकान्ता जी, अध्यात्मनिष्ठ श्री सुंदरी जी, प्रबल स्मृतिधारिणी, सुदूर विहारिणी प्रवर्तिनी श्री केसरदेवी जी प्रभावशाली व्यक्तित्त्व की धनी श्री कैलाशवती जी आदि पंजाब की विशिष्ट साध्वियाँ हैं, जिनका वैदुष्य से भरपूर विशाल शिष्या परिवार है। खम्भात ऋषि सम्प्रदाय में श्री शारदाबाई खम्भात सम्प्रदाय की विच्छिन्न साधु परम्परा की जन्मदातृ, आगमज्ञा साध्वी थी, इनके प्रवचनों की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं।
क्रियोद्धारक श्री धर्मदास जी महाराज की गुजरात परम्परा की श्रमणियों का इतिवृत्त संवत् 1718 से उपलब्ध होता है। यह परम्परा अनेक शाखाओं में विस्तार को प्राप्त है, विशेषतः लिंबड़ी अजरामर सम्प्रदाय में बहुश्रुती शत शिष्याओं की प्रमुखा श्री वेलबाई स्वामी, श्री उज्ज्वलकुमारी जी आदि विदुषी साध्वियाँ हुईं, लिंबड़ी गोपाल सम्प्रदाय की श्री लीलावती बाई. सौराष्ट्रसिंहनी. 145 साध्वियों की खिवैया एवं तेतलीपुत्र आदि प्रवचन पुस्तकों से ख्यातनामा साध्वी थीं। इनकी कई शिष्याएं मासोपवासी व आगमज्ञा हैं। श्री निरूपमाजी ने बत्तीस शास्त्र कठस्थ कर साध्वीसंघ में कीर्तिमान स्थापित किया है। गोंडल सम्प्रदाय में श्री मीठीबाई के तप के आँकड़ें चौंका देने लायक हैं। वर्तमान में मुक्ताबाई लीलमबाई परम वैराग्यशीला एवं विशाल श्रमणी संघ की संवाहिका है। बरवाला सम्प्रदाय में जवेरीबाई उग्र तपस्विनी साध्वी थी। बोटाद सम्प्रदाय में चम्पाबाई, कच्छ आठ कोटि मोटा संघ में श्री मीठीबाई, श्री जेतबाई, कच्छ नानीपक्ष में देवकुंवरबाई आदि दृढ़ संयमनिष्ठा साध्वियाँ हुई। मालव परम्परा में श्री मेनकंवरजी प्रखर प्रतिभासम्पन्न, कठोर संयमी साध्वी थी, उन्होंने भारत के वायसराय एवं सैलाना नरेश आदि उच्च अधिकारियों को अपने प्रवचनों से प्रभावित कर राज्य में अमारि की घोषणा करवाई थी। ज्ञानगच्छ में नंदकंवरजी एवं उनका श्रमणी समुदाय उत्कृष्ट क्रिया का आराधक है। मारवाड़ परम्परा में श्री फतेहकुंवरजी ने विशाल आगम साहित्य की दो बार प्रतिलिपि की। श्री चौथांजी ने कई साधु साध्वियों को आगमों में निष्णात बनाया था। श्री सरदारकुंवर जी के द्वारा कई हस्तियाँ संयम मार्ग पर आरूढ़ होकर जिन धर्म की पताका को फहराने वाली बनी। श्री जड़ावांजी, श्री भूरसुन्दरी जी की उत्कृष्ट काव्य कला की विद्वानों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। श्री पन्नादेवी जी ने 'काणूजी भैरूं नाका' पर होने वाले भीषण संहार को बन्द करवाया था। प्रवर्तिनी उमरावकंवरजी वर्तमान में उच्च कोटि की योगसाधिका, मधुर उपदेष्टा एवं श्रमण-श्रमणी संघ की सम्माननीया साध्वी हैं। रत्नवंश की प्रमुखा साध्वी श्री सरदारकुंवर जी तथा श्री मैनासुन्दरी जी अपनी ओजस्वी प्रवचन शैली और स्पष्ट विचारधारा के लिए प्रसिद्ध थीं। मेवाड़ परम्परा में श्री नगीनांजी शास्त्र चर्चा में निपुण महासाध्वी हुईं, इनकी शिष्याएँ श्री चंदूजी, इन्द्राजी, कस्तूरांजी, बरदूजी आदि साध्वियाँ महातपस्विनी और उग्र अभिग्रहधारी थीं। श्री श्रृंगारकवर जी निर्भीक स्पष्टवक्ता समयज्ञा साध्वी थी, मेवाड़ की विश्रृंखलित कड़ियों को इन्होंने ही टूटने से बचाया। श्री प्रेमवतीजी राजस्थान सिंहनी के नाम से प्रख्यात साध्वी थी, अहिंसा के क्षेत्र में इनका योगदान सराहनीय था।
कोटा सम्प्रदाय की साध्वी श्री बड़ाकंवरजी घोर तपस्विनी थी, इनके अन्तिम 52 दिन के संथारे में रोज नाग के दर्शन होते रहे। प्रवर्तिनी श्री मानकंवरजी 45 शिष्या-प्रशिष्याओं की संयमदात्री थी। उपप्रवर्तिनी श्री सज्जनकंवरजी ने डूंगला ग्राम के बाहर नवरात्रि पर होने वाली सैंकड़ों पशुओं की बलि को अपनी ओजस्वी वाणी से बन्द करवाया था। प्रवर्तिनी प्रभाकंवरजी अनेक श्रमण-श्रमणियों की संयम प्रेरिका, तेजस्विनी, वर्चस्विनी, आगमज्ञा साध्वी हैं। आचार्य हुक्मीचंदजी महाराज की सम्प्रदाय में श्री रंगूजी विशिष्ट व्यक्तित्व की धनी साध्वी थी। आदर्श त्यागिनी श्री नानूकंवरजी चातुर्मास के 120 दिन में केवल 5-7 दिन आहार करती थी, उन्होंने दीक्षा से पूर्व अपने कुष्ठ रोग से मृत्यु प्राप्त पति की स्वयं अन्त्येष्टी क्रिया की थी। प्रवर्तिनी आनन्दकंवरजी इतनी करूणामूर्ति थी कि अपनी जान की
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