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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
कलात्मक निर्माण कर संयम पथ पर अग्रसर होने वाले मुमुक्षुओं के लिये प्रेरणा-स्रोत बनीं। उपवास, बेले, तेले, चार, पांच, आठ, नौ आदि तप भी किया। 18 वर्ष तक प्रतिदिन 5-5 घंटे आप जाप में निरत रहीं। 5 वर्षों से प्रायः एक पछेवड़ी का उपयोग करती हैं। सेवा, गुर्वाज्ञा में आप सदा जागरूक रहती हैं। आपने अपने जीवन में भारत के प्रत्येक प्रान्त में तथा लाहौर (पाकिस्तान), नेपाल तक लगभग 80 हजार कि.मी. एवं एक दिन में 52 कि.मी. पद यात्रा करके कीर्तिमान स्थापित किया है। आप अत्यंत निर्भीक हैं, नागालैंड तक पहुंचकर जैनधर्म की ज्योति जलाने वाली प्रथम साध्वी हैं। समय-समय पर शास्ताओं द्वारा आप 100 से अधिक संदेश-पत्र प्राप्त कर चकी हैं. निडरता, सूझबूझ एवं समर्पण भाव हेतु प्राप्त हुए थे। आप सं. 2004 से अग्रगण्य रूप में धर्म की महती प्रभावना कर रही हैं।
7.11.2 श्री भीखांजी 'नोहर' (सं. 1993-वर्तमान) 9/11
आप 14 वर्ष की वय में ब्यावर में दीक्षित हुईं। रजोहरण बनाने में आप प्रथम क्रमांक पर हैं, मुखवस्त्रिका, सिलाई आदि की सुंदरता में कई बार पुरस्कृत हुईं। आप प्रतिदिन तीन विगय व 15 द्रव्यों से अधिक आहार नहीं लेती, उपवास से अठाई तक की तपस्या व 35 आयंबिल किये हैं। साध्वी खूमांजी की बहिन संतोकाजी को 71 कि.मी. तक कंधों पर उठाकर लाने में भी आप सहयोगिनी बनीं। सं. 2018 से 60 तक आपके अग्रगण्य होकर चातुर्मास करने के उल्लेख हैं।
7.11.3 श्री सिरेकंवरजी 'सरदारशहर' (सं. 1993-वर्तमान) 9/13
आपने 13 वर्ष की उम्र में ज्येष्ठ भ्राता श्री हनुमानमलजी और ज्येष्ठ भगिनी सुन्दरजी के साथ ब्यावर में दीक्षा ग्रहण की। साध्वी प्रमुखा लाडांजी की प्रेरणा से आपने मुनि हनुमानमलजी के पास संस्कृत का गहन अध्ययन किया। सं. 2005 से अग्रगण्या के रूप में विचरण कर रही हैं, आपने हरियाणा, पंजाब के हजारों भाई-बहनों को तेरापंथी, सुलभबोधि व व्यसनमुक्त बनाने में योगदान दिया। 7.11.4 मातुश्री साध्वी वदनांजी 'लाडनूं' (1994-2033 ) 9/15
श्री वदनांजी ऐसे युगप्रधान, युगदृष्टा आचार्य की मातेश्वरी हैं जिसने तेरापंथ ही नहीं संपूर्ण जैनधर्म की छवि को विश्व धर्मों में निखारने का महनीय कार्य किया। आचार्य तुलसी जो आचार्य भिक्षु के शासन में नवम आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए, उनके व्यक्तित्व का बीज मां वदनां में अन्तर्हित है। वदनांजी लाडनूं के कोठारी 'राखेचा' परिवार में पिता पूनमचंदजी व माता मघीदेवी की कन्या थीं, संवत् 1936 में उनका जन्म हुआ, 14 वर्ष की वय में खटेड़वंशीय श्री झूमरलालजी से विवाह हुआ, जिनसे आपको नौ संतानों की प्राप्ति हुई। सं. 1993 में जब मुनि तुलसी आचार्य पद पर अधिष्ठित हुए तो वदनांजी की भावधारा श्रमणी बनने को आतुर हो उठी, आचार्यश्री ने मातृ ऋण से उऋण होने का अवसर देख 58 वर्ष की उम्र में उन्हें दीक्षा प्रदान की। इससे पूर्व उन्होंने अपनी तीन संतान मुनि श्री चम्पालालजी, मुनि श्री तुलसीजी, साध्वी लाडांजी को संघ में समर्पित किया हुआ था। आपकी दीक्षा भी तेरापंथ के इतिहास में पुण्योदय का स्वर्णिम पृष्ठ है आपके पीछे 30 मुमुक्षु आत्माएँ और भी दीक्षा के लिये तैयार हुईं, कुल 31 दीक्षाएँ एक साथ बीकानेर शहर में हुईं। इनमें 23 साध्वियाँ एवं 8 श्रमण थे। वंदनाजी के परिवार में सं. 2034 तक 19 दीक्षाएँ हुईं। यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि तेरापंथ संघ के दस आचार्यों में सात
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