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तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ
किया। इसके अतिरिक्त साढ़े पांच मास एकान्तर, अनेक बार अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान तथा सौ बार दस प्रत्याख्यान किये। 39 वर्ष तक 16 हाथ वस्त्र से अधिक वस्त्र शीतकाल में ग्रहण नहीं किया, तप के साथ ही आप स्वाध्याय, ध्यान एवं जाप भी नियमित करती थीं। आपकी उत्कट तप साधना वस्तुतः भौतिक युग में जीने वालों के समक्ष एक प्रबल चुनौती है।
7.6 चतुर्थ आचार्य श्री जयाचार्य के शासन काल की प्रमुख श्रमणियाँ (संवत् 1908-38)
तेरापंथ संघ के चतुर्थ अधिनायक श्री जयाचार्य आगम के प्रकाण्ड विद्वान् साहित्यकार एवं प्रतिभाशाली कवि थे। श्री रायचंदजी के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् 1908 में उन्होंने धर्मसंघ का दायित्व संभाला, उस समय तेरापंथ संघ में 67 साधु और 143 साध्वियाँ थीं। उनके 30 वर्ष के शासनकाल में 105 श्रमण और 224 साध्वियों की वृदि हुई, इनमें 213 श्रमणियों ने संयम का यथोचित पालन किया, 11 श्रमणियाँ गण से पृथक् हुईं। श्रीमज्जयाचार्य ने श्रमणियों के विकास एवं संघहित की दृष्टि से साध्वी-प्रमुखा की नियुक्ति आदि कई नई व्यवस्थाएं निर्मित की इससे साध्वियों का सर्वांगीण विकास हुआ, वे कला, साहित्य, शिक्षा आदि क्षेत्रों में रुचि लेने लगी यह इस युग की बहुत बड़ी उपलब्धि थी इनमें कई साध्वियाँ तप के क्षेत्र में भी अग्रणी रहीं, कुछ साध्वियों ने तीन बार तथा किसी ने छह बार छहमासी तप करके श्रमण-संस्कृति को गौरवान्वित किया, इनमें से कुछ श्रमणियों की झलक इस प्रकार है
7.6.1 श्री चन्दनांजी 'बींठोड़ा' (सं. 1908-52) 4/1
आपका जन्म धामली के बोहरा परिवार में हुआ और ससुराल बींठोड़ा (राज.) के लोढ़ा गोत्र में था। पतिवियोग के बाद सं. 1908 माघ शुक्ला 11 को साध्वी श्री मगदूजी के द्वारा दीक्षा ग्रहण की। आप श्री जयाचार्य की प्रथम शिष्या थीं। आप तपस्विनी साध्वी थीं। 900 उपवास, 70 बेले, 20 तेले, 32 चौले 10 पचोले, 15, 19, 30 की तपस्या एक बार की। 35 बार दस प्रत्याख्यान किये।
7.6.2 साध्वी प्रमुखा श्री गुलाबांजी 'बीदासर' (सं. 1908-42) 4/3
आप जयाचार्य के शासन की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी साध्वी तथा द्वितीय साध्वी प्रमुखा थीं। आपका जन्म बीदासर में श्री पूरणमलजी बेगवानी के यहां सं. 1901 में हुआ। पंचम आचार्य मघवागणी की आप लघु भगिनी थीं। गर्भ के 9 महीने मिलाकर नौवें वर्ष में प्रवेश करने पर आपकी दीक्षा अपनी माता श्री वन्नाजी के साथ सं. 1908 फाल्गुन कृष्णा 6 को जयाचार्य के द्वारा बीदासर में हुई। आपका व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावी एवं अनुकरणीय था। आपने श्रीमज्जयाचार्य की 'भगवती सूत्र' पर पद्यबंद्ध रचना की। एक बार सुनकर ही आप लिपिबद्ध कर लेती थीं। अक्षर मोती से थे अतः आपने अनेक ग्रंथों को लिपिबद्ध किया। सं. 1927 को बीदासर में श्रीमज्जयाचार्य ने आपको 'साध्वी प्रमुखा' के रूप में अलंकृत किया। 15 वर्ष तक इस गरिमामय पद का निर्वहन कर सं. 1942 में जोधपुर में आपका महाप्रयाण हुआ। श्री मघवागणी ने आपकी गुणगरिमा एवं जीवन प्रसंग के सन्दर्भ में 'गुलाब सुजश' नामक आख्यान की रचना की।
6. शासन-समुद्र भाग-7
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