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स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.1.5 महार्या श्री हीरांजी (सं. 1914)
रतलाम निवासी श्री दुलीचंदजी सुराणा की धर्मपत्नी श्री नानूबाई की कुक्षि से आपका जन्म हुआ था। माता के दीक्षा लेने के निश्चय को सुनकर ये भी दीक्षित हो गईं। आपका कंठ मधुर व व्याख्यान अत्यन्त रोचक था। संवत् 1935 का चातुर्मास जावरा में करने के पश्चात् पूज्यपाद तिलोकऋषिजी के साथ आप भी दक्षिण में चार वर्ष विचरीं। आपकी प्रेरणा से ही श्री रत्नऋषिजी अध्ययन कर ज्ञानी बने। श्रीवृद्धिऋषिजी एवं उनकी धर्मपत्नी आपके सदुपदेश से ही दीक्षित हुए थे। आपकी 13 शिष्याएँ थीं।- श्री हरियाजी, छोटाजी, रंभाजी, गोकुलजी, श्री लछमांजी, श्री झमकूजी, श्री अमृताजी, श्री सोनाजी, श्री रंगूजी, श्री नंदूजी, श्री चंपाजी, श्री भूराजी, श्री रामकुंवरजी।
6.3.1.6 श्री लछमाजी (सं. 1921 से पूर्व)
आप मन्दसौर के बीसा पोरवाड़ श्रीमान् धनराजजी की पुत्री थीं, रतलाम में विवाह हुआ। पदवीधर श्री कुशलकुंवरजी से आपने दीक्षा अंगीकार की, आगम का अभ्यास कर आप बहुसूत्री बनीं। आपकी प्रवचनशैली मधुर आकर्षक थी, आपके प्रवचन को श्रवण कर पिपलोदा के राजा दुलीसिंह जी ने 11 जीवों को अभयदान दिया था, आपने प्रतापगढ़ नरेश को भी सद्बोध देकर धर्मनिष्ठ बनाया था। भगवतीसूत्र को भिन्न-भिन्न शैली से समझाने में आप निपुण थीं। अंत में 11 वर्ष प्रतापगढ में स्थिरवास किया। दो दिन के संथारे के साथ समाधिपूर्वक शरीरोत्सर्ग किया। आपकी अनेक शिष्याएँ हुईं, उनमें श्री रूक्माजी, श्री हमीराजी, श्री देवकुंवरजी, श्री रंभाजी, श्री दयाकुंवरजी, श्री जड़ावकुंवरजी, श्री गेंदाजी, श्री लाडूजी, श्री बड़े हमीराजी, शांतमूर्ति श्री सोनाजी ये दस नाम उपलब्ध होते हैं।"
6.3.1.7 श्री झमकूजी (सं. 1921-?)
आप पीपलोदा निवासी श्री माणकचंदजी नांदेचा की सुपुत्री थीं। आपके द्वारा मालवा और दक्षिण देश में धर्मप्रचार हुआ। 16 मुमुक्षु बहनों ने आपके पास प्रव्रज्या ग्रहण की, उनमें श्री गंगाजी, अमृताजी, केसरजी, जड़ावांजी, राधाजी, मानकंवरजी और कुशलांजी प्रसिद्ध थीं।
6.3.1.8 श्री लाडूजी (सं. 1921 के लगभग)
आप श्री लिछमांजी की शिष्या थीं। अत्यंत सरल हृदया और विनयविभूषिता साध्वी थीं। शास्त्रलेखन की भी रूचि थी, आपके हस्तलिखित पन्ने मौजुद हैं। आपका व्याख्यान भी प्रभावशाली था। आप की एक शिष्या श्री भूलांजी हुई।
30. ऋ. सं. इ., पृ. 295 31. ऋ. सं. इ., पृ. 364 32. ऋ. सं. इ., पृ. 277-278 33. ऋ. सं. इ., पृ. 365
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