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स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
आपका अत्यंत प्रेम संबंध था, अतः हीरांजी दौलांजी की जोड़ी प्रख्यात थी । दौलांजी की पांच शिष्याएँ थीं श्री मानकंवरजी, श्री प्रेमकंवरजी, श्री प्याराजी, श्री सिरेकंवरजी, श्री पानकंवरजी । श्री मानकंवरजी की 11 शिष्याएँ हुईं- श्री जड़ावकंवरजी, श्री छोटे मेनकंवरजी, श्री सूरजकंवरजी, श्री पानकंवरजी, श्री रतनकंवरजी, श्री नेमांजी श्री बदामजी, श्री चांदकंवरजी, श्री केशरजी, श्री जसकंवरजी, श्री सज्जनकंवरजी । श्री जड़ावजी की एक शिष्या धनकंवरजी हुई। श्री मेनकंवरजी की चार शिष्याएँ - श्री सुगनकंवरजी, श्री राजकंवरजी, श्री सणगारांजी श्री मदनकुंवरजी । सुगनकंवरजी की तीन शिष्याएँ - श्री सरदारांजी, श्री गुलाबकंवरजी, श्री हंसकंवरजी । श्री मानकुंवरजी की तृतीय शिष्या श्री सूरजकुंवरजी की दो शिष्याएँ श्री मानकुंवरजी और सुन्दरकुंवरजी । श्री सुन्दरकुंवरजी की शिष्या श्री केशरकुंवरजी हुई। श्री मानकुंवरजी की आठवीं शिष्या श्री चाँदकंवरजी की एक शिष्या श्री जतनकुंवरजी । श्री मानकंवरजी की 11वीं शिष्या प्रवर्तिनी पंडिता श्री सज्जनकुंवरजी थीं । 316
6.5.8.10. प्रवर्तिनी श्री माणकजी (सं. 1946-82 )
आप रतलाम के प्रख्यात मुणोत परिवार की पुत्रवधु थीं। वैधव्य के पश्चात् सास नानूबाई, नणंद प्रेमाबाई एवं देवर ताराचंदजी के साथ आपने श्री मोखमसिंहजी म. के मुखारविंद से सं. 1946 चैत्र शु. 11 को दीक्षा अंगीकार की। आपकी पूर्वजा साध्वियों में श्री हीरांजी दोलाजी आदि से आपको उत्तराधिकार में ज्ञान सम्पन्नता प्राप्त हुई । हीराजी दौलाजी की जोड़ी प्रख्यात थी । आप हीराजी की शिष्या थी। श्री माधवमुनिजी म. के युवाचार्य पद प्रदान के समय सं. 1978 में आपको प्रवर्तिनी पद प्रदान किया गया, परन्तु कुछ वर्ष बाद सं. 1982 फाल्गुन शुक्ला 8 रतलाम में आप स्वर्गवासिनी हो गई। आपकी चार शिष्याएँ थीं- श्री भूरीजी, श्री मेहताबजी, श्री फूलकुंवरजी, श्री श्यामकुंवरजी। श्री भुरीजी की शिष्या श्री धनकुंवरजी और उनकी शिष्या श्री सोहनकुंवरजी हुई। 317
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6.5.8.11. प्रवर्तिनी श्री महताबकुंवरजी (सं. 1947-85 )
आपका जन्म सं. 1939 कुशलगढ़ निवासी ठाकुर दीवान श्रीमान् दिलीपसिंहजी चौपड़ा की चतुर्थ पत्नी प्याराबाई की कुक्षि से हुआ। पिता के देहान्त के पश्चात् माता प्याराबाई का हृदय संसार से विरक्त हो गया। अतः सं. 1947 में माता-पुत्री दोनो ने इन्दौर में श्री रतनकुंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की। माता का नाम प्रेमकुंवरजी रखा गया। आठ वर्ष की बालिका साध्वी वेश में आत्मसाधना के मार्ग पर दृढ़ता पूर्वक बढ़ने लगी। शास्त्रों का गंभीर अध्ययन किया। आपके कण्ठ माधुर्य की विशिष्टता से आप 'मालव कोकिला' के नाम से विख्यात हुई। वक्तृत्व कला भी आपकी अनूठी थी, आपने कई आत्माओं को लक्ष्य-बोध दिया, आत्म-साधना के मार्ग पर गतिशील किया। सं. 1985 चैत्र शुक्ला 3 को लगभग 46 वर्ष की उम्र में इन्दौर में देहान्त हुआ। आपका स्वल्पजीवन भी गौरव-गरिमा से मण्डित और तेजोदीप्त रहा। आपकी 17 शिष्याएँ और कई प्रशिष्याएँ हुईं। आपकी माताजी श्री प्रेमकुंवरजी का देहान्त सं. 1999 वैशाख शु. 2 को रतलाम में हुआ, उनकी चार शिष्याएँ हुईं। 18
6.5.8.12. आर्या सूरजकंवरजी (सं. 1950 )
संवत् 1950 के आसपास श्रीसूरजकुंवरजी नाम की प्रखर व्यक्तित्व वाली साध्वी हुई हैं। वह अपने को 317. वही, पृ. 222
318-319. वही, पृ. 225
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