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6.6.1.6 श्री सरस्वतीजी (सं. 2019 )
आप मंदसौर जिले के नारायणगढ़ नामक कस्बे के निवासी खटीक (कसाई) जाति के श्री गोवाजी की सुपुत्री हैं। श्री समीरमुनिजी के सदुपदेश से आपके परिवारीजन कसाई का धंधा छोड़कर जैनधर्म के प्रति आस्थावान बने, ऐसे हजारों परिवार 'वीरवाल' के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। संस्कारों की सुदृढ़ भूमिका ने आपके मन में वैराग्य के ज्योति प्रज्वलित की। आप आर्हती दीक्षा लेने को तत्पर हुई तो ससुराल पक्ष की और से कोर्ट में आपकी दीक्षा को रोकने के प्रयत्न किये गये, तथापि आप अपने निश्चय पर दृढ़ रही। अंतत: 6 मई 1962 को पंचायती नोहरे में श्री समीरमुनिजी महाराज के मुखारविंद से दीक्षा का पाठ पढ़कर आप श्री रंगूजी की नेश्राय में शिष्या घोषित हुईं। वीरवाल जैन समाज से दीक्षा अंगीकार करने वाली आप सर्वप्रथम साध्वी हैं। आपके ही साथ वीरवाल समाज की अन्य दो बहनों ने भी दीक्षा अंगीकार की, वे साध्वी विद्यावती व राजीमती के नाम से प्रसिद्ध हुई। साध्वी सरस्वतीजी अत्यंत निर्भीक, सरल स्वभावी एवं विनयशील साध्वी हैं। 'वीरवाल सिंहनी' के नाम से सुविख्यात, समाज में अति प्रतिष्ठित एवं सम्माननीय साध्वी के रूप में वे जिनशासन की प्रभावना करती हुई विचरण कर रही हैं। 418
6.6.1.7 श्री भक्तिप्रभाजी (सं. 2036 ) 'कोटा'
आप बलदोटा परिवार की कन्या हैं, कुंदेवाड़ी (नासिक) में सन् 1980 को कोटा संप्रदाय के श्री बिरदीकंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की। आपने हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत आदि का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया, पाथर्डी बोर्ड से 'प्रभाकर' की परीक्षा भी दी। आप प्रखरवक्ता हैं, आपकी सद्प्रेरणा से करमाला, आष्टी, काष्टी, टेंभूर्णी आदि स्थानों पर गणेश युवक मंडल, भक्ति बहू मंडल, कन्यामंडल आदि अनेक मंडल, पाठशालाएँ, स्थानक आदि निर्मित हुए। श्रावक संगठन तैयार हुआ, आपने समाज की प्रगति में अपना काफी योगदान दिया । 19 6.6.2 आचार्य हुकमीचंदजी महाराज की साधुमार्गी शाखा की श्रमणियाँ :
6.6.2.1 प्रवर्तिनी महासती श्री खेताजी (सं. 1910 के आसपास)
आपका जन्म थली प्रान्त में कोटासर निवासी टीकमचंदजी मालू की धर्मपत्नी जेताबाई की कुक्षी से हुआ, पतिवियोग के पश्चात् संयम लेकर आप पूज्य श्री हुक्मीचंदजी म. सा. की क्रियोद्धारक क्रांति में सहयोगिनी बनीं, आप बड़ी त्यागी प्रवृत्ति की थीं, जीवनपर्यन्त दिन में एकबार आहार व दो बार पानी के उपरांत अन्न जल ग्रहण नहीं किया, देवता संबंधी उपसर्ग भी आप पर आये किंतु आप विचलित नहीं हुईं। आपकी नेश्राय में सभी सतियाँ प्रायः पौरूषी करती थीं, तथा चौथे प्रहर में गर्म आहार का बिना कारण सेवन नहीं करती थीं। किसी भी गांव पौरूषी से पूर्व आप प्रवेश नहीं करतीं थीं। आपने अपने पीछे श्री राजकंवरजी को प्रवर्तनी पद पर नियुक्त किया था। 420
418. संपादिका - श्रीमती कौशल्या जैन, श्री समीरमुनि स्मृति ग्रंथ, खंड 5, पृ. 1-10
419. पत्राचार से प्राप्त
420. मुनि धर्मेश, साधुमार्गी की पावन सरिता, पृ. 336
जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
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