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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
7.3.7 प्रमुख स्थानीया श्री हीरांजी (सं. 1844-78) 1/28
श्री हीरांजी की दीक्षा सं. 1844 में आचार्य भिक्षु के द्वारा बगतूजी और नगांजी के साथ हुई थी। इन्हें 'पंचपदरा की सती', 'हीरे की कणी' कहकर सम्मान दिया है। ये अतीव गुण सम्पन्न, तेजस्वी व्यक्तित्व की धनी तथा बुद्धिमान थीं। सहनशीलता का गुण इनमें कूट-कूटकर भरा था। मुनि हेमराजजी ने इन्हीं से 'साधु प्रतिक्रमण' सीखा, ये अपने टोले में अग्रणी साध्वी थीं। आचार्य भारमलजी की अत्यन्त कृपापात्र थीं। कई साध्वियों को आपने शिक्षित कर सुयोग्य बनाया था। आचार्य भारमलजी के स्वर्गवास से कुछ दिन पूर्व संवत् 1878 में संथारा कर चेलावास में आपने देहत्याग किया।
7.3.8 श्री नगांजी (सं. 1844-66) 1/29
पति वियोग होने के बाद आचार्य भिक्षु द्वारा संवत् 1844 में आपने दीक्षा ग्रहण की। आप मुनि वेणीरामजी की बहन थीं, ससुराल 'बगड़ी' का था। तेरापंथ साहित्य में आपके संथारे की बड़ी महिमा गाई गई है, आपने आचार्य भारमलजी के काल में देवगढ़ में सं. 1866 कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को संलेखना व्रत अंगीकार किया, कुल 177 दिन में तीन उपवास, नौ बेले, उन्नीस तेले, आठ चौले, एक अठाई एवं एक छह का तप किया, इस प्रकार आपने 177 दिन में 143 दिन का तप 63 दिन का पारणा तथा 10 दिन का संथारा किया। संवत् 1866 वैशाख शुक्ला 13 को संथारे के साथ आप देवलोकवासिनी हुई। आचार्य भारमलजी ने आपको 'सतयुगी सती' कहकर सम्मानित किया।
7.3.9 श्री अजबूजी (सं. 1844-88) 1/30
आप रोयट के शाह आईदान गोलछा की बहिन एवं मुनि सरूपचंदजी, भीमजी और जीतमलजी (जयाचार्य) की बुआ थीं। उत्कट वैराग्य से आचार्य भिक्षु के शासन में संवत् 1844 को रोयट में दीक्षित हुईं। मुनि सरूपचंदजी, भीमजी एवं जीतमलजी तीनों भ्राताओं को जिनशासन में दीक्षित करने का श्रेय आपको ही है। जयाचार्य की मातेश्वरी कल्लूजी भी आपकी प्रेरणा से ही दीक्षित हुई थीं, इस प्रकार कइयों को शासन में दीक्षित कर संवत् 1888 में संथारापूर्वक स्वर्गगमन किया।
7.3.10 श्री गुमानांजी (सं. 1857-60 से 68 के मध्य) 1/33
आप संवत् 1857 में आचार्य भिक्षुजी द्वारा दीक्षित हुई थीं, संसार पक्ष में आप तासोल गांव की तथा ससुराल में बरड्या बोहरा थीं। मुनि जीवोजी की ताई (बड़ी माँ) थीं। आपने अपने जीवन में उत्कृष्ट तपाराधना की थी। ख्यात में आपके उपवास से मासखमण तक करने का उल्लेख है, एवं दो मास के संथारे का जिक्र किया है। संवत् 1860 से 1868 के मध्य आपके संथारे का उल्लेख प्राप्त होता है।
7.3.11 श्री रूपाजी (सं. 1848.57) 1/37
आप नाथद्वारा (मेवाड़) के शाह भोपजी सोलंकी की पुत्री थीं, आपके ज्येष्ठ भ्राता 'मुनि खेतसी जी' एवं ज्येष्ठा भगिनी साध्वी खुशालाजी थीं। आप आचार्य ऋषि रायचन्दजी की मौसी थीं। दीक्षा के लिये ससुराल पक्ष की ओर से आपको घोर कष्ट दिये गये, आपके पैर खोड़े में डलवा दिये गये, 21 दिन तक इस दारूण कष्ट को आपने सहनशीलता से सहन किया, अंत में खोडा स्वयं ही टूट गया। उदयपुर के महाराणा भीमसिंहजी ने यह
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