________________
स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
पास स्तोक ज्ञान का भंडार था, प्रवचन नहीं करने पर भी धर्मकथाएँ सुनाने का ढंग बड़ा सुन्दर था। सीखने-सीखाने में सदा अग्रणी रहती थीं। सं. 2024 पोष कृ. 13 को संथारा सहित आपने स्वर्ग-प्रस्थान किया।33 6.5.8.27. प्रवर्तिनी श्री चांदकंवरजी (सं. 1966)
आपका जन्म 'छत्री बरमावल' निवासी श्री गंगारामजी पीपाड़ा और माता घीसीबाई के यहां हुआ। रतलाम निवासी श्री रामलालजी बाफना की माता मैनाबाई आपकी पालक माता थीं। प्रवर्तिनी श्री महताबकुंवरजी म. ने अल्प आयु में ही आपको दीक्षा दे दी थी। आपकी दीक्षा सं. 1966 फाल्गुन कृष्णा 5 को रतलाम में हुई। दीक्षा के पश्चात् आपने 25 आगमों का गहन अध्ययन किया। आप हिंदी, गुजराती, ऊर्दू, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं की ज्ञाता थीं। आपकी प्रवचन शैली भी सुन्दर आकर्षक एवं परिमार्जित थी।34 आपकी तीन शिष्याएँ हुईं-श्री मदनकुंवरजी, श्री शांतिकुंवरजी, श्री गुमानकुंवरजी।15 6.5.8.28. श्री मोताजी (सं. 1968- )
__ आप निम्बोद निवासिनी थीं, सं. 1968 वैशाख शुक्ला 11 को श्री प्रेमकुंवरजी के पास दीक्षित हुईं।36 6.5.8.29. श्री सुन्दरकंवरजी (सं. 1968- 2003)
आपका जन्म कुशलगढ़ एवं ससुराल खवासा के वागरेचा परिवार में था, पतिवियोग के पश्चात् पंचवर्षीय पुत्र की ममता को छोड़कर सं. 1968 पौष कृष्णा 8 को लगभग 25 वर्ष की आयु में खवासा में दीक्षा अंगीकार की, आप प्रवर्तिनी श्री मेहताबकंवरजी की शिष्या बनीं। आप महान तपस्विनी थीं। 24 या 25 मासक्षमण तथा और भी अनगिनत तपस्याएँ की। सं. 2003 थांदला में संथारा पूर्वक देहत्याग किया। आपकी तीन शिष्याएँ हुईं-व्याख्यानी श्री फूलकुंवरजी, श्री सरसकुंवरजी तथा श्री दीपकुंवरजी।17 6.5.8.30. श्री राजकुंवरजी (सं. 1969- )
___ आपका जन्मस्थान कुशलगढ़ में था, 28 वर्ष की आयु में पतिवियोग के पश्चात् सं. 1969 मृगशिर कृष्णा 1 सोमवार थांदला में आपने दीक्षा ग्रहण की, आप प्रवर्तिनी श्री महताबांजी की शिष्या बनीं। आप शांतप्रकृति की क्षमाशीला महासती थीं।338
6.5.8.31. श्री गुलाबकुंवरजी (सं. 1969-2000)
पेटलावद निवासी श्री मीयाचंदजी चाणोदिया की आप कन्या थीं। विवाह के पश्चात् अकस्मात् पति वियोग हो जाने पर आपने श्री मेनकंवरजी म. की प्रेरणा से सं. 1969 में दीक्षा ग्रहण की। आपकी ज्ञानाराधना उत्कृष्ट
333. वही, पृ. 219 334. वही, पृ. 291 335. महासती चांद स्मृति ग्रंथ, प्रमुख संपादिका-साध्वी सुमनप्रभा 336. श्रीमद् धर्मदास व उनकी मालव-परम्परा, पृ. 227 337. वही. पृ. 228 338. वही, पृ. 229
653
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org