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स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
हैं। इनकी प्रेरणा से भाणगांव, बुरहानपुर, बालुच, बेल्हा, मालेफाटा में युवक मंडल, महिलामंडल की स्थापना हुई । सवाई माधोपुर में आनंद पाठशाला, वाल्हेकर वाड़ी पूना में प्रिय वल्लभपाठशाला आदि की स्थापना की। सैंकड़ों को व्यसन मुक्त, गलत परम्पराओं का उन्मूलन, फैशन मुक्त बनाने में योगदान दिया । इनकी दो शिष्याएँ हैं- श्री कल्पदर्शनाजी, श्री विरागदर्शनाजी | "
6.3.1.68 अन्य श्रमणियाँ
ऋषि संप्रदाय की अन्य भी विदुषी श्रमणियाँ हैं, जिनके विषय में जानकारी उपलब्ध नहीं हुई, वे हैं (1) श्री किरणप्रभाजी 'एम. ए. ', इनकी 6 शिष्याएँ हैं- प्रीतिदर्शनाजी, प्रशमदर्शनाजी, विपुलदर्शनाजी, ओजसदर्शनाजी, रशिमदर्शना जी और रूचिदर्शनाजी । ( 2 ) श्री सुशीलकंवरजी सरलस्वभावी, नम्रवृत्ति की विदुषी प्रभावक प्रवचनकर्त्री साध्वीजी हैं। इनके शिष्या परिवार में श्री सन्मतिजी, श्री सुनन्दाजी, श्री प्रियनंदाजी, श्री सुचेताजी, श्री सुप्रभाजी, श्री शिवदाजी, श्री शुभदाजी, श्री सुमित्राजी, श्री सुप्रियाजी, श्री सुबोधिजी आदि शिष्याएँ हैं। (3) श्री विमलकुंवरजी के परिवार में श्री त्रिशलाकंवरजी, डॉ. श्री स्मितासुधाजी, श्री श्वेताश्रीजी, श्री सुहिताजी, श्री इन्द्रप्रभाजी, श्री विजयप्रभाजी आदि साध्वियाँ हैं, (4) श्री सुंदरकुंवरजी के परिवार में श्री मंगलप्रभाजी, श्री उदयप्रभाजी, श्री प्रगतिश्रीजी आदि हैं। ( 5 ) श्री कुशलकंवरजी, प्रमोदसुधाजी, साधनाजी, श्री चेतनाजी, श्री पुनीताजी, श्री रामकुंवरजी, दिव्यप्रभाजी (6) श्री प्रभाकुंवरजी, प्रतिभाकुंवरजी, सिद्धिसुधाजी आदि 8 श्री पुष्पकुंवरजी, प्रगतिश्रीजी ठाणा 3 श्री प्रकाशकुंवरजी, श्री सुशीलाकंवरजी, श्री हंसाजी आदि 5 श्री संयमप्रभाजी, श्रुतप्रज्ञाजी आदि 3, श्री आगमश्रीजी आदि 3, श्री किरणसुधाजी श्री विशालाजी, श्री प्रज्ञाजी आदि 7, श्री प्रशांतकुंवरजी, दिव्याश्रीजी आदि 3, श्री फुल्लाजी आदि 4 तथा प्रेमकुंवरजी, विजयकुंवरजी आदि साध्वियों का परिचय उपलब्ध नहीं हुआ।
6.3.2 श्री हरिदासजी का श्रमणी - समुदाय :
6.3.2.1 श्री खेतांजी (सं. 1730 के लगभग )
आप पंजाब स्थानकवासी परम्परा की आद्य श्रमणी मानी जाती हैं, पंजाब श्रमणी - संघ का आरम्भ अब तक के उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर श्री खेतांजी से प्रारम्भ होता है। आपका मूल परिचय, जन्मस्थान आदि का इतिवृत अज्ञात है, तथापि इतना उल्लेख मिलता है, कि जब पूज्य हरिदासजी महाराज वि. सं., 1730 में गुजरात से पंजाब पधारे थे तो आपके पास संवत् 1750 में महासती बगतांजी की दीक्षा हुई थी। उक्त साक्ष्य से यह प्रमाणित होता है, कि आप श्री हरिदासजी महाराज की समकालीन साध्वी रही होंगी, अथवा यह भी हो सकता है कि आप उन्हीं के संघ की साध्वी हों। अपने युग की आप महान प्रभावशाली साध्वी थीं, कई श्रेष्ठी गृहों की कन्याओं ने आपके पास संयम ग्रहण किया था। आपकी तीन शिष्याएँ प्रमुख थीं- श्री बगतां जी, श्री मीनाजी, श्री कक्कोजी। आपका विचरण एवं प्रचार क्षेत्र पंजाब, हरियाणा व जम्मू था। 'सुनाम' में आपका काफी प्रभाव था।"
96. श्री सुमनमुनि, पंजाब श्रमण संघ गौरव, पृ. 166
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