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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.2.2 श्री बगतांजी (सं. 1750-80)
आपकी माता का नाम श्रीमती 'वेगा' और पिता का नाम 'श्री रत्नसिंह' था, जो जाति से राजपूत किसान थे। आपने संवत् 1750 में श्री खेतांजी के पास दीक्षा ग्रहण की। श्री बगतांजी के बारे में यह अनुश्रुति है, कि वे सदोष-निर्दोष आहार की परख बिना किसी से पूछे स्वयं अपनी प्रज्ञा से कर लेती थीं। एकबार वे किसी गांव में पहुंची, साध्वियाँ गोचरी लेकर आईं, उन्होंने देखते ही कहा- 'आहार व पात्र दोनों अशुद्ध हैं, इन्हें फैंक दो।" साध्वियाँ हैरान हुई, जिन घरों से आहार लेकर आई थीं वहाँ पूछताछ की, तो पता लगा यह सारा गांव मुसलमानों का है, सब्जी में अंडों की जर्दी का प्रयोग था। साध्वीश्री ने आहार के साथ पात्रों का भी विसर्जन किया। अशुद्ध आहार का प्रायश्चित् अंगीकार किया, और कितने ही दिन बिना पात्रों के निर्वाह किया। आपकी घ्राण-शक्ति की प्रबलता, मतिज्ञान की निर्मलता संयम की सजगता व सतर्कता का यह अनुपम उदाहरण है। आपकी अनेक साध्वियाँ थीं-मीनाजी, ककोजी, दयाजी, फूलोजी, सजनाजी, सीताजी आदि। किन्तु शिष्या के रूप में एकमात्र सीताजी का ही नाम आता है। आपका स्वर्गवास वि. सं. 1780 में हुआ।”
6.3.2.3 श्री सीताजी (सं. 1755)
महान् धर्म प्रचारिका साध्वी श्री सीताजी अमृतसर के जौहरी परिवार में पैदा हुई थीं। आपकी माता का नाम श्री अमृतादेवी था, उन्हीं की प्रेरणा से आपने वि. सं. 1755 में साध्वी श्री बगतांजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपके उपदेश से प्रभावित होकर पांच हजार लोगों ने मांस-मदिरा आदि व्यसनों का आजीवन त्याग किया था। आपकी एक शिष्या का ही उल्लेख प्राप्त होता है वे थीं, साध्वी श्री खेमाजी।
6.3.2.4 श्री सुजानांजी (सं. 1765) ___ आप महासती बगतांजी की साध्वी थीं, साथ ही एक कुशल लेखिका भी थीं। आपका लिखा हुआ 43 पन्नों का 'निशीथ सूत्र टब्बार्थ' वि. सं. 1765 श्रावण कृष्णा 11 का प्राप्त होता है।
6.3.2.5 श्री खेमाजी (सं. 1800)
आपका जन्म रोहतक जिले के छोटे से गांव 'रोडका' में हुआ था। माता का नाम 'जीवादेवी' था। भरे-पूरे परिवार का त्याग कर आपने प्रौढ़ावस्था में श्री सीताजी के पास संवत् 1800 में दीक्षा ग्रहण की। आपने अपने जीवन में शीलधर्म का खूब प्रचार-प्रसार किया। जिस क्षेत्र में भी जातीं, वहीं दो चार जोडे ब्रह्मचर्य व्रत के लिये तैयार हो जाते, एकबार तो आपने 250 जोड़ों को ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करवाया। श्री सदाकुंवरजी, श्री वेनतीजी, श्री सजनाजी आपकी प्रसिद्ध शिष्याएँ थीं। आप कठोर संयमी एवं अनुशासनप्रिय प्रतिभासंपन्न साध्वीजी थीं। जब संवत् 1810 में श्री सोमजीऋषिजी की चार संप्रदायों का सम्मेलन हुआ, तब आपने श्री दयाजी, मंगलाजी, फूलांजी साध्वीजी को अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा था।100 97. वही, पृ. 167 98. वही, पृ. 167 99. वही, पृ. 166 100. वही, पृ. 168
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