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स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
6.3.2.6 श्री फूलांजी (सं. 1809-1877)
___ आपका अन्य इतिवृत तो उपलब्ध नहीं होता किंतु इतना उल्लेख अवश्य मिलता है, कि वि. सं. 1809 में पंचेवर ग्राम में हुए 1810 के सम्मेलन में आप पूज्य श्री हरिदासजी महाराज की साध्वी संघ का नेतृत्व करती हुई स्यालकोट से पधारी थीं। इससे ज्ञात होता है, कि आप अत्यंत विदुषी एवं प्रतिभासंपन्न साध्वी थीं। आपकी हस्तलिखित प्रति 'औपपातिक सूत्र' सुंदर और शुद्ध लिपि में लिखी हुई प्राप्त होती है। आप महासती दयाजी की शिष्या थीं, संवत् 1877 में विद्यमान थीं। आपकी एक शिष्या वषतांजी थीं।
6.3.2.7 श्री सजनां जी (सं. 1865)
आप देहली निवासिनी राजपूत कन्या थीं, संवत 1865 में आपकी दीक्षा हुई, आपकी दो सुयोग्य शिष्याएँ थीं- श्री ज्ञानाजी और श्री शेरांजी। इसके अतिरिक्त आपके विषय में कोई उल्लेखनीय जानकारी उपलब्ध नहीं होती।102
6.3.2.8 श्री ज्ञानाजी (सं. 1870-1895)
महासाध्वी ज्ञानाजी को वर्तमान पंजाबी जैन स्थानकवासी साधु-परंपरा की जन्मदातृ एवं संस्थापिका कहा जाता है। पंजाब में जब अंतिम स्थानकवासी साधु, तपस्वी मुनि श्री छजमलजी का भी देहावसान हो गया, तब ज्ञानाजी ने एक तेजस्वी नवयुवक रामलाल; जो जाति से राजपूत था, उसे जैन साधु बनने के लिये तैयार किया,
और उसके पिता से संघ रक्षार्थ उसकी याचना की। पिता द्वारा स्वीकृति मिलने पर उसे शास्त्र-ज्ञान में प्रवीण किया, तथा स्वयं दीक्षा प्रदान की। नवदीक्षित साधु रामलालजी को उन्होंने दिवंगत आचार्य श्री छजमलजी स्वामी की नेश्राय में शिष्य घोषित किया। आगे जाकर ये पंजाब के आचार्य पद पर अधिष्ठित हुए, इन्हीं के शिष्य-रत्न आचार्य अमरसिंहजी म. हुए।
श्री ज्ञानांजी महान कवियित्री, जैन आगमों की गहन अध्येता एवं ज्योतिष व सामुद्रिक शास्त्र की पारंगता थी। एकबार दुष्ट आशय से सम्मुख आ रहे तीन व्यक्तियों को मार्ग में ही साध्वी जीवन के नियम-उपनियम एवं महासती धारिणी चंदनबाला का धार्मिक चरित्र सुनाकर उनके भोगासक्त मन को परिवर्तित कर दिया था। बाद में उन तीनों ने श्री शेराजी महाराज से श्रावक के 12 व्रत ग्रहण किये। आप ओसवाल परिवार की थीं, वि. सं. 1870 में आपकी दीक्षा श्री सजनाजी के पास हुई। अंतिम संयम में आप नेत्र-ज्योति से विहीन बन गई थीं, अत 'सुनाम' नगर में कई वर्ष स्थिरवासिनी रही। आपका अपर नाम 'चैनाजी' था। आपकी दो शिष्याएँ थीं- श्री खूबां जी एवं श्री जीवनदेवीजी। जीवनदेवीजी ओसवाल परिवार से संबंधित थी, उनकी दीक्षा संवत् 1895 में सुनाम में हुई। ज्ञानांजी की परम्परा काफी विस्तृत है।104
101. वही, पृ. 169 102. वही, पृ. 169 103. श्री रवीन्द्र जैन ने उसे ज्ञानांजी का भानजा बताया है।-महाश्रमणी अभिनंदन ग्रंथ, खंड 5, पृ. 18 104. पंजाब श्रमण संघ गौरव, पृ. 170-72
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