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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
6.5.2.85 श्री प्रफुल्लाबाई (सं. 2041)
आप वढवाण निवासी कांतिभाई कोठारी की पुत्री हैं। सुरेन्द्रनगर में वैशाख शु. 5 को आपकी दीक्षा हुई। आप डबल ग्रेज्युएट हैं, बुद्धि अत्यंत प्रखर है। 6.5.2.86 श्री गीताबाई (सं. 2041)
आप सुरेन्द्रनगर में श्री धीरज भाई तुरखिया की कन्या हैं, सुरेन्द्रनगर में ही वैशाख शु. 5 को दीक्षा हुई। आपने सन् 85 में दीक्षा ली और लीलमबाग में 85 वें पुष्प के रूप में ही विकसित हुईं, यह एक संयोग है।
6.5.2.87 श्री मतिज्ञाबाई (सं. 2041)
आप 'सौका' ग्राम के श्री कांतिभाई गांधी की द्वितीय दीक्षिता पुत्री हैं। वैशाख कृ. 5 को लींबड़ी में आपकी दीक्षा हुई। आप संयमनिष्ठ विदुषी साध्वी हैं।
इनके पश्चात् दीक्षिता साध्वियों की केवल नामावली ही उपलब्ध हो सकी है, वह इस प्रकार है-श्री निमज्ञाबाई, श्री शीतलबाई, श्री निशीताबाई, श्री ऋजुताबाई, श्री करूणाबाई, श्री जयणाबाई, श्री ख्यातिबाई, श्री हितज्ञाबाई, श्री आरतीबाई, श्री हितेषाबाई, श्री धराबाई, श्री विनीताबाई, श्री महिताबाई, श्री गीतेषाबाई, श्री धैर्यताबाई, श्री अंकिताबाई, श्री नेहालीबाई, श्री रोहिताबाई, श्री कल्पेषाबाई, श्री निष्ठाबाई, श्री विज्ञाताबाई, श्री रिद्धिबाई, श्री हितज्ञाबाई, श्री जयज्ञाबाई, श्री जागृतिबाई, श्री दीप्तिबाई, श्री ऋषिताबाई, श्री धरतीबाई, श्री आस्थाबाई, श्री उषाबाई, श्री प्रगतिबाई, श्री अजिताबाई, श्री दिव्यताबाई, श्री रम्यताबाई, श्री अल्काबाई, श्री मीराबाई, श्री अभिषाबाई, श्री अंतेषाबाई, श्री वीरांशीबाई, श्री देवांशीबाई, श्री प्रियज्ञाबाई, श्री हेमज्ञाबाई, श्री रूपाबाई, श्री कृतिज्ञाबाई, श्री लक्षिताबाई, श्री ईशीताबाई, श्री हितरत्नाबाई, श्री आत्मज्ञाबाई, श्री सारंगाबाई, श्री यशाबाई, श्री वसुधाबाई, श्री विज्ञाबाई, श्री तत्त्वज्ञाबाई, श्री आज्ञाबाई, श्री खुशबूबाई, श्री स्नेहाबाई, श्री नीताबाई, श्री हेतलबाई, श्री सिद्धिबाई। इनमें 144 साध्वियाँ बालब्रह्मचारिणी हैं। 8 का स्वर्गवास हो चुका है, शेष साध्वियाँ अपने ज्ञान दर्शन चारित्र द्वारा शासन की प्रभावना करती हुई विचरण कर रही हैं।27 6.5.3 गोंडल सम्प्रदाय की श्रमणियाँ :
गांडल गच्छ के आद्य संस्थापक युगप्रधान आचार्य श्री डुंगरसिंहजी महाराज थे, जो लिंबड़ी संप्रदाय के संस्थापक श्री पंचायणजी की परम्परा के थे। वि. सं. 1815 कार्तिक कृष्णा 10 को पूज्य आचार्य श्री रत्नसिंहजी महाराज के सान्निध्य में 'दीवबंदर' (सौराष्ट्र) ग्राम में इन्होंने दीक्षा धारण की। वि. सं. 1845 माघ शुक्ला पंचमी के दिन 'गोंडल' में इन्हें आचार्य पद से विभूषित किया, उस समय इन्होंने 'गोंडल' को धर्मकार्य हेतु केन्द्र स्थान बनाकर प्रचार प्रसार करने का निर्णय लिया, तबसे यह संप्रदाय 'गोंडल सम्प्रदाय' के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। गोंडल गच्छ के लगभग 215 ग्राम हैं।
इस सम्प्रदाय में अनेक तेजस्वी, वर्चस्वी महाश्रमणियाँ अतीत में भी हुई हैं और आज भी हैं। जिनमें प्रमुख रूप से वि. सं. 1815 में श्री डंगरसिंहजी महाराज के साथ दीक्षित उनकी मातुश्री हीरबाई, बहन श्री वेलबाई एवं 277. संपादिका-प्रज्ञाबाई महासतीजी, कुसुम-किरण, पृ. 111-113, मलाड (वेस्ट) मुंबई-64, ई. 2001
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