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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.1.2 प्रवर्तिनी श्री कुशलकुंवरजी (19वीं सदी का मध्यकाल)
आपका जन्म मालवा प्रान्त के बागड़ देशीय 'हावड़ा' ग्राम में हूमड़ गोत्रीय परिवार में हुआ था। महासती श्री मोताजी के पास आपने वैराग्य भाव से दीक्षा अंगीकार की। राधाजी की चौथी पीढ़ी में होने से सं. 1850 के पश्चात् आपकी दीक्षा संभव लगती है। विनय, सरलता, दक्षता, गंभीरता आपके व्यक्तित्व के विशिष्ट अंग थे। आपके सदुपदेशों से प्रभावित होकर प्रतापगढ़, धरियावद, पीपलोदा आदि अनेक स्थानों के नरेशों ने सदा के लिये मांस, मदिरा का त्याग कर दिया था। पूज्य श्री धनजी ऋषिजी की उपस्थिति में ऋषि-सम्प्रदाय के सम्मेलन में करीब 125 संत और 150 साध्वियों के मध्य आपकी उत्कृष्ट साधना, धीरता, गंभीरता का सर्वोपरि मूल्यांकन कर 'प्रमुखा साध्वी' के रूप में 'प्रवर्तनी' पद से सुशोभित किया था। तत्कालीन मुनियों में जैसे पूज्य श्री उदयसागर जी म. शास्त्रीय-चर्चा में अपना महत्व रखते थे, वैसे ही सतियों में आपकी प्रतिष्ठा थी। आपकी 27 शिष्याएँ हुई, उनमें चार के ही नाम उपलब्ध होते हैं-श्री सरदारांजी, श्री धनकंवरजी, श्री दयाजी, श्री लिछमांजी। इनमें श्री दयाकुंवरजी एवं श्री लछमांजी की शिष्या-परम्परा ही प्रायः ऋषि सम्प्रदाय में प्रचलित हैं। ऋषि-सम्प्रदाय में
साध्वियाँ हैं. वे सब प्रायः आपको ही अपनी आद्यप्रवर्तिनी साध्वी स्वीकार करती हैं।
6.3.1.3 प्रवर्तिनी श्री दयाकुंवरजी (19वीं सदी का उत्तरार्द्ध)
दयाकंवरजी की विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता, इतना ही उल्लेख मिलता है कि इन्होंने लोगों को सन्मार्ग पर लगाया। ये प्रभावशाली प्रवचनकी परम पंडिता साध्वी थीं। अंतिम समय रतलाम में इन्होंने सती गेंदाजी से पूछा 'अब कितनी रात शेष है'? उन्होंने तारामंडल देखकर कहा- 'तीसरा प्रहर व्यतीत होने वाला है।' आपने अपना अंतिम समय जानकर कहा-'मुझे संथारा लेना है, और वह 25 दिन चलेगा, घबराना नहीं।' सतीजी ने पूछा 'खाचरोद से श्री गुमानकंवर जी, श्री सिरेकवरजी आदि को बुला लें?' तो आपने कहा-'परसों शाम को वे स्वयं आ जाएंगी, वैसा ही हुआ। 25वें दिन आप स्वर्गवासिनी हो गई। इनकी अनेक शिष्याओं में श्री घीसाजी, झमकूजी, हीराजी, गुमानाजी गंगाजी, मानकंवरजी प्रसिद्ध हैं।28
6.3.1.4 श्री नानूजी (सं. 1914- )
रतलाम निवासी श्री दुलीचंदजी सुराणा की आप धर्मपत्नी थीं, आपके 3 पुत्र व एक पुत्री थी। पति वियोग के अनंतर श्री अयवंता ऋषि जी के प्रवचन को श्रवण कर आपने दीक्षा का विचार किया, आपकी भावना को देखकर पुत्री हीराबाई, पुत्र कंवरमल एवं तिलोकचंदजी भी दीक्षा के लिये तैयार हो गये। सं. 1914 माघ कृ. प्रतिपदा गुरूवार के दिन चारों ने पंडित श्री अयवंताऋषिजी के मुखारविंद से दीक्षा ग्रहण की। श्री नानूंजी और हीराजी श्री दयाकंवरजी की शिष्या बनीं। आप महान जिनशासन प्रभावक माता हुईं, आपके सुपुत्र श्री तिलोकमुनि ही पूज्यपाद आचार्य तिलोकऋषि जी महाराज के नाम से प्रख्यात आचार्य हुए। आप सरल व गंभीर थीं। मालवा में ही किसी समय आपका स्वर्गवास हुआ।29
27. ऋ. स. इ., पृ. 274-75 28. ऋ. स. इ., पृ. 276 29. ऋ. स. इ., पृ. 294
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