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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास सिद्धसूरि ने इन्हें संवत् 1074 में सूरि पद से विभूषित कर 'कक्कसूरि' नाम दिया। ये उपकेशगच्छ के 48वें आचार्य हुए। इनके काल में इस संघ में 3000 साधु-साध्वी थे 1556
5.5.23 श्रमणी रोली ( संवत् 1076- 1128 )
आप सिन्धभूमि में डामरेलनगर की भाद्रगौत्रीय समदडिया शाखा के शाह गोसल की सुपुत्री थीं, आप सर्वकलाविद् एवं रूप-गुणसंपन्ना थीं। आपका विवाह आदित्यनाग गोत्रीय गुलेच्छा शाखा के लब्धप्रतिष्ठ व्यापारी पद्माशाह के सुपुत्र चोखा से हुआ, विवाह से पूर्व ही 'चौखा' धर्म के रंग में रंगा हुआ था, अतः विवाह के तुरंत बाद ही नेमकुमार और राजुल का आदर्श उपस्थित करते हुए चोखा एवं रोली ने आचार्य श्री कक्कसूरि के चरणों
वि. संवत् 1076 के ाल्गुन पंचमी के शुभ दिन अनेकों मुमुक्षु आत्माओं के साथ संयम अंगीकार किया। दीक्षा के बाद चोखा का देवभद्र नामकरण किया गया । वि. संवत् 1108 में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। उपकेशगच्छ में देवगुप्तसूरि ( 12वें ) 49वें आचार्य माने गये । हैं । 557
5.5.24 श्रमणी उदा भार्या (संवत् 1077 )
उपकेशगच्छ के 48 वें आचार्य श्री कक्कूसरि ( 12वें ) ने संवत् 1077 का चातुर्मास पाली में किया। चातुर्मास के पश्चात् श्रेष्टि गोत्रीय शाह भाणा के सुपुत्र उदा एवं उसकी 6 मास की विवाहिता पत्नी ने सूरि के उपदेशामृत का पान कर सजोड़े आचार्य श्री के चरणों में भागवती दीक्षा अंगीकार की 1558
5.5.25 श्रमणी चन्दनबाला (संवत् 1178)
आप गुर्जर देश के अष्टादशशती प्रान्त में 'मदुआ' नामक ग्राम के निवासी प्राग्वाटवंशीय श्री वीरनाग की बहन थीं एवं स्याद्वाद - रत्नाकर के कर्त्ता तथा पाटण में दिगंबर आचार्य कुमुदचंद्र को शास्त्रार्थ में पराजित करने वाले, 84 वादों में विजेता आचार्य वादीदेवसूरि की बुआ लगती थी। दीक्षा के पश्चात् इन्होंने खूब तप: संयम की आराधना की, ऐसा उल्लेख पट्टावली में है। 559
5.5.26 साध्वी सरस्वती श्री (संवत् 1181 )
आप एक निर्भीक एवं प्रज्ञाशील साध्वी थीं। आपके विषय में यह घटना प्रसिद्ध है कि एकबार दिगंबर आचार्य कुमुदचन्द्र ने आपका तिरस्कार किया तो आप आचार्य देवसूरि के पास आईं और आचार्यश्री को ललकारते हुए कहा 'आपकी विद्वत्ता किस काम की ? जो हथियार शत्रु को न जीत सके वह हथियार किस काम का? जिससे परभव बढ़े ऐसी समता किस काम की.......... .?' साध्वीश्री की चुनौती सुनकर आचार्यश्री ने दिगंबर वादियों के साथ शास्त्रार्थ करने के लिये पाटण संघ को पत्र लिखा। शास्त्रार्थ में विजयी होने पर
556. वही, पृ. 1436-40 557. वही. पृ. 1455-59
558. वही, पृ. 1441
559. वही, पृ. 1256
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