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दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.7.18 अवनंदि कुरत्तियार (8वीं से 11वीं सदी)
प्राकृतिक गुफा पर पाया गया यह शिलालेख है। इसमें उल्लेख किया गया है कि पेरम्बत्तिउर की साध्वी पट्टिनीकुरत्तियार की शिष्या अवनंदि कुरत्तियार की प्रेरणा से जिन प्रतिमा निर्मित कराई गई थी।'07 उक्त संदर्भ शिलालेख संख्या 89 का है।
इनके अतिरिक्त कतिपय अन्य आर्यिकाएँ - अव्वैयार, गुण ताङ्कुिरत्तियार, इलनेसुरत्तु कुरत्तियार, कवुन्द अडिगल, कनकवीर कुरन्ति, कुंडल कुरत्तियार, मम्मैकुरत्तियार, मिलनूर कुरत्तियार, नलकूर कुरत्तियार, पेरूर कुरत्तियार, पिच्चेकुरत्तियार, पूर्वनन्दि कुरत्तियार, संघ कुरत्तियार, तिरूवसै कुरत्तियार, श्री विजय कुरत्तियार आदि नामों का उल्लेख पं. सिंहचन्द जैन शास्त्री ने 'तमिलनाडु में जैनधर्म एवं तमिलभाषा के विकास में जैनाचार्यों का योगदान" शीर्षक से आस्थांजली में किया है।108
समीक्षा
इन सब शिलालेखों से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि तमिलनाडु जैसे सुदूर दक्षिण प्रदेश में प्राचीन काल में भी जैनों के सुदृढ़ केन्द्र थे, और साध्वियों के ऐसे स्वतन्त्र संघ थे, जिनकी सर्वसत्तासम्पन्न संचालिकाएँ कुरत्तियार, कुरत्तिगल अथवा कुरत्ति या भट्टारिकाएँ होती थीं। ये 'कुरत्तियार' किस संघ से संबंधित थी, इसका कहीं स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता, किंतु यापनीय संघ जिसने साधारणतः समग्र स्त्री समाज को और विशेषतः साध्वियों को जो साधुओं के समान अधिकार दिये, उससे विद्वद् मनीषियों ने इनके यापनीय परम्परा की होने की संभावना व्यक्त की है. क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में तो प्रारम्भ काल से लेकर आज तक साध्वियों के समह साध आचार्यों के ही अधीन हैं, अतः ये साध्वी आचार्या उक्त दोनों संघों से भिन्न किसी अन्य संघ की होनी चाहिये, और वह संघ 'यापनीय-संघ' हो सकता है।
दक्षिण भारत की इन आर्यिकाओं ने तत्कालीन स्थिति में समाज में नव जागरण का शंख फूंका, धार्मिक प्रवृत्तियों के शोधन में अपना समय दिया तथा समाज की धर्म भावनाओं में अभिवृद्धि की। दक्षिण भारत में भारतीय-संस्कृति, धर्म और दर्शन की धारा को अक्षुण्ण बनाये रखने में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। 4.8 उत्तरभारत में दिगम्बर परम्परा की आर्यिकाएँ (वि. सं. 11वीं से 19वीं सदी तक)
उत्तर भारत में दिगम्बर परम्परा की आर्यिकाओं के उल्लेख 11वीं शताब्दी से उपलब्ध हुए हैं। ग्वालियर के 11वीं से 16वीं शताब्दी से प्राप्त पुरातात्त्विक साक्ष्यों से दिगम्बर मुनि एवं आर्यिकाओं के उल्लेख प्राप्त होते है। यहां के दूबकुण्ड नामक स्थान के 1088 ईसवी के प्राप्त शिलालेख में दिगम्बर मुनि संघ-मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक का अंकन है।09 इसी प्रकार देवगढ़ जिला झांसी के अनेक अभिलेख दिगम्बर आर्यिकाओं से संबंधित है। वहां के मंदिर संख्या 11 के सामने तथा 12 के दक्षिण में स्थित मानस्तम्भ के पूर्व की ओर संवत् 1116 की दो पंक्तियों के 107. वही, पृ. 171 108. आचार्य श्री विमलमुनि अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 185 109. जैन कामताप्रसाद. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, पृ. 118
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