________________
श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ
दीक्षा संवत् 1431 मिती मार्गशीर्ष की प्रथम छठ के दिन करहेड़ा तीर्थ में हुई थी। इनके ही साथ 'हर्षसुन्दरी' की भी दीक्षा हुई थी। जो व्यावहारिक वंशी महीपति की पुत्री थीं, उनका सांसारिक नाम 'हांसू' था। ये दोनों दीक्षाएँ आचार्य जिनोदयसूरिजी द्वारा हुई थीं। श्री जिनोदयसूरिजी ने संवत् 1415 में 24 शिष्य और 14 शिष्याओं को दीक्षा प्रदान की, उसके पश्चात् भी संवत् 1432 तक अनेक आर्याओं की दीक्षा आप द्वारा हुई, कइयों को गणिनी, प्रवर्तिनी, महत्तरा पद से भी अलंकृत किया, किंतु उनमें से किसी के भी नाम, संवत् आदि की ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
5.1.81 गुणसमृद्धि महत्तरा (संवत् 1477)
आप खरतरगच्छ के श्री जिनचन्द्रसूरि की शिष्या थीं। आपने 503 पद्यों में जैन महाराष्ट्री (प्राकृत) में 'अंजणासुंदरी चरियं' रचा है। यह ग्रंथ जैसलमेर के भंडार में विद्यमान है। इसमें हनुमानजी की माता अंजनासुंदरी का चरित्र वर्णित है। इस रचना की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसकी रचना संवत् 1477 चैत्र शुक्ला 13 के दिन जैसलमेर में की गई थी।” प्राकृत भाषा की ये एकमात्र लेखिका साध्वी हैं। इनके वैदुष्य की प्रशंसा कई जैन इतिहासकारों ने अपने ग्रंथों में की है।
5.1.82 जयमाला (संवत् 1492 के लगभग)
आप खरतरगच्छीय जिनचंद्रसूरि (1492-1530) की शिष्या थीं। इन्होंने "जिनचन्द्रसूरिगीत' सात गाथा में व 'चन्द्रप्रभु स्तवन' लिखा। इसकी प्रति 'अगरचंद नाहटा (बीकानेर) के ग्रंथ भंडार में है।98 5.1.83 मतिवल्लरि गणिनी (संवत् 1499)
आप श्री जिनभद्रसूरि (1475-1514) की शिष्या थीं। संवत् 1499 में इन्होंने श्री सुमतिसूरि की टीका वाला दशवैकालिक सूत्र जो करीब तीन हजार श्लोक प्रमाण है; अपनी शिष्या 'आज्ञावल्लरि गणिनी' को पढ़ाने के लिये लिखवाया था। 5.1.84 राजलक्ष्मी गणिनी (संवत् 1520)
ये आचार्य जिनसमुद्रसूरि (1533-1555) की शिष्या थीं। इनका संवत् 1520 मृगसर कृष्णा 10 को पालनपुर में वर्षावास होने का उल्लेख प्राप्त होता है।100
95. ख. दी. नं., सू., पृ. 22 पृ. 265, बड़ोदरा, ई. 1968 96. ख. का इति., पृ. 182 97. सिरि जैसलमेर पुरे विक्कम च उदसह सत्तुत्तरे वरिसे। वीर जिण जम्मदिवसे कियमंजणिसुंदरी चरिय।। 503 ।। -ही. र.
कापड़िया, जैन संस्कृत साहित्य का इति. 98. 'नाहटा' ब्र. पं. चंदाबाई अभि. ग्रंथ, पृ. 576 99. 'नाहटा' ऐति. लेख संग्रह, पृ. 339 100. जिनशासन नां श्रमणीरत्नों, पृ. 31
283
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org