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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
5.4.14 साध्वी वाहला 'वाल्हा' (संवत् 1684, 1699)
खरतरगच्छ के उपाध्याय श्री समयसुंदर रचित 'वल्कलचीरी रास' 225 कड़ी, संवत् 1681 जैसलमेर में रचित है. वह संवत 1699 में अंचलगच्छ के पं. गणशील ने आगरा में साध्वी वाल्हा जी के पठनार्थ लिखा। इसकी प्रति, जिनचारित्रसूरि संग्रह मुंबई पोथी 85 नं. 1328 में है।504 इसके अतिरिक्त विद्याविजयकृत 'नेमिराजुल लेख चौपई' की संवत् 1684 की आगरा में लिखी प्रति पर भी साध्वी वाल्हा जी का उल्लेख है।05
5.4.15 साध्वी विद्यालक्ष्मी (संवत् 1712)
__ आप अंचलगच्छ की साध्वी रही की शिष्या अदू की शिष्या मानाजी की शिष्या थीं। आपके पढ़ने के लिये कल्याणकृत 'धन्यविलास रास' की प्रतिलिपी जेठ कृ. 5 संवत् 1712 में की गई, यह हस्तप्रति मोहनलाल जी नो भंडार, सूरत, (पो. 122) में संग्रहित है।506
5.4.16 साध्वी पद्मलक्ष्मी (संवत् 1720)
आप साध्वी श्री हेमा की शिष्या थीं। वाचक भावशेखर ने संवत् 1720 माघ शु. 5 शुक्रवार को भुज में 'साधुवंदना' की प्रति उक्त साध्वीजी के वाचनार्थ लिखी।507 यह प्रति श्री लाभविजय ज्ञानभंडार राधनपुर में है।508 5.4.17 साध्वी लाला (संवत् 1721)
___ आप अंचलगच्छ के भट्टारक अमरसागरसूरि के शिष्य रत्नशीलजी की शिष्या थीं। आपकी गुरूणी का नाम साध्वी वाल्हा जी था। इन्होंने सं. 1721 मार्गशीर्ष कृ. 11 गुरूवार को श्री नेमिकुंजर कृत 'गजसिंहरास' की प्रति लिखी।509 आपने ही मुनि पुण्यकीर्ति कृत 'पुण्यसार रास' की प्रति संवत् 1666 में तथा संवत् 1721 कार्तिक शु. 14 को दिन राजशीलकृत 'विक्रम खापर चरित चौपई' की प्रति भी लिखी।510
5.4.18 साध्वी लावण्यश्री (संवत् 1734)
आप अत्यन्त महिमावन्त साध्वी जी थीं। आंचलगच्छ के लावण्यचन्द्र मुनि ने अपनी रचना 'साधुवंदना' एवं 'साधु गुणभास' के अंत में आपको प्रणाम किया है। साधुवंदना की रचना संवत् 1734 श्रावण शु. 13 सिरोही में तथा 'साधुगुणभास' की रचना संवत् 1734 फाल्गुन शु. 11 पत्तन नगर में की गई थी। नाथागणि के शिष्य धर्मचन्द्र द्वारा लिखित इसकी हस्त प्रति महावीर जैन विद्यालय मुंबई नं. 630 में संग्रहित है।।।
504. जै. गु. कु. भाग 2, पृ. 377 505. अंचल. दिग्दर्शन संख्या 1750 506. (क) जै. गु. क. भाग 3, (ख) पृ. 162, अंचल. दिग्दर्शन संख्या 1753 507. (क) अंचल. दिग्दर्शन, सं. 1752, (ख) 'शिवप्रसाद', अचल. का इति., पृ. 136 508. अ. म. शाह, श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 230 509. जै. गु. क., भाग 3, पृ. 122 510. वही, भाग 1, पृ. 226 511. साधइ मुगति समाधि सुं नीति। प्रणमिहे लावन्यसिरि नाम कि।। - उद्धृत- जै. गु. क., भाग 5, पृ. 8
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