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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.9.65 क्षुल्लिका अजितमती माताजी (संवत् 1985)
आपका जन्म सन् 1904 में 'ओलीवेढे' (जि. कोल्हापुर) में नानासाहब के यहां हुआ, ढाई वर्ष की उम्र में विवाह और 12 वर्ष की उम्र में पति से वियोग हुआ, तब सन् 1928 में आचार्य शांतिसागर जी म. से सम्मेदशिखर में क्षुल्लिका दीक्षा धारण की, तभी से आपने अपने जीवन को तप त्याग में लगाया हुआ है। आपने सोलह कारण के तीन बार 32-32 उपवास, दो बार सिंहनिष्क्रीड़ित तथा चारित्रशुद्धि के 1234 उपवास किये। आप रात-दिन पठन-पाठन में संलग्न रहती हैं, आप द्वारा रचित पुस्तकें इस प्रकार है- आचार्य वीरसागर जी महाराज का पूजन, शांतिनाथ स्तोत्र, जीवन्धर की वैराग्य वीणा, चिंतामणि पार्श्वनाथ पूजा, सशिक्षा, पराक्रमी वरांग, लघुसमाधि साधन, पंचाध्यायी आदि। अनुवादित साहित्य-सन्मति सूत्र, धर्म रत्नाकर, ध्यान कोष, आराधना समुच्चय, कम्मपयडि चूर्णि, पाँच द्वात्रिंशिकाएँ, द्रव्यसंग्रह , भक्तामर, अभ्रदेव का श्रावकाचार, श्री योगदेव की तत्त्वार्थवृत्ति, भगवती आराधना।
इस प्रकार आप एक अच्छी कवि, लेखिका, ज्ञानी, ध्यानी, तपस्विनी साधिका हैं। आप वयोवृद्ध तपोवृद्ध एवं विविध गुण सम्पन्न हैं।217
4.9.66 क्षुल्लिका कमलश्रीजी (संवत् 2011)
आपका जन्म सन् 1915 अक्षय तृतीया के दिन 'वसंगडे' जिला कोल्हापुर (महाराष्ट्र) में श्रेष्ठी श्री तोताबासौदे के यहां हुआ आपने रोहतक में आचार्य देशभूषण जी से माघ शुक्ला 5 संवत् 2011 को दीक्षा अंगीकार की। आप शान्त स्वभावी, गुरू-भक्ति से परिपूर्ण एवं धर्म प्रभाविका हैं।218
4.9.67 क्षुल्लिका चन्द्रसेनाजी (संवत् 2012)
आपने संवत् 1952 में उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में श्री अनन्तमल जी अग्रवाल के यहां जन्म लिया था, आपने प्रथम छठी प्रतिमा धारण कर फिर पति की अनुमति से आचार्य देशभूषण जी म. से जयपुर में संवत् 2012 में क्षुल्लिका दीक्षा ली। आपने अनेक क्षेत्रों में पाद-विहार किया और धर्मोपदेश देकर श्रावक-श्राविकाओं को सन्मार्ग में लगाया, अंत में समाधिपूर्वक स्वर्गवासिनी हुईं।219
4.9.68 क्षुल्लिका चन्द्रमती माताजी (संवत् 2012 के लगभग)
आपका जन्म सन् 44 को बैजापुर (महाराष्ट्र) में हुआ। पिता छगनलाल और माता सोनूबाई की आप 'खीरनमाला' नाम की कन्या थीं, लौकिक शिक्षण में बी. ए. आनर्स तथा एच.एम.डी.एस. वैद्यकीय उपाधि प्राप्त की। आपका विवाह डॉ. चन्द्रकान्त दोशी (वर्तमान में मुनि श्री वीरसागर जी म.) के साथ हुआ। दीक्षा के पश्चात् आपने
217. दि. जै. सा., पृ. 101 218. दि. जै. सा., पृ. 337 219. दि. जै. सा., पृ. 101
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