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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
गई, जिसकी सिद्धि 'प्रतिष्ठा लेख संग्रह' से होती है। इस एक ही पुस्तक में श्वेताम्बर परम्परा के 72 गच्छों का उल्लेख है, इसके अतिरिक्त चैत्यवासी परम्परा के 84 गच्छ तथा शिलालेखों एवं जो तिरोहित हो चुके हैं, उन गण, गच्छों को भी मिलाया जाय तो गच्छों की एक बृहदाकार सूचि तैयार हो सकती है। ऐसे अनेक गच्छ श्वेताम्बर परम्परा में बने और विलीन हो गये । मात्र कुछ ही गच्छ चिरजीवी और प्रभावशाली रहे, इन सभी गच्छों में अल्पाधिक रूप में श्रमणियाँ विद्यमान रहीं हैं, किंतु किस गच्छ में कब, कितनी कौनसी श्रमणियों हुई, इसका प्रमाण पुरस्सर वर्णन कहीं भी प्राप्त नहीं होता। जिन गच्छों में श्रमणियों के उल्लेख विशेष रूप से उपलब्ध होते हैं, वे हैं- खरतरगच्छ, तपागच्छ, अंचलगच्छ, उपकेशगच्छ, आगमिकगच्छ और पार्श्वचंद्रगच्छ । वर्तमान में सर्वाधिक श्रमणियाँ तपागच्छ की एवं तत्पश्चात् खरतरगच्छ की हैं। यद्यपि इन सभी गच्छों में प्रत्येक युग में हजारों की संख्या में श्रमणियाँ मौजुद रही हैं, किंतु इतिहास में उन सबका वर्णन नहीं मिलता, कई श्रमणियों के तो नाम का भी उल्लेख नही है, तथापि जिन-जिन श्रमणियों के नाम अथवा जीवन-वृत्त की जानकारी उपलब्ध हुई है, उनका संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत अध्याय में किया गया है।
5.1 खरतरगच्छ एवं उसकी विदुषी श्रमणियाँ (विक्रम संवत् 1080 से 20वीं सदी तक )
खरतरगच्छ श्वेताम्बर संप्रदाय की लगभग एक सहस्र वर्ष प्राचीन और महत्वपूर्ण शाखा है। विक्रम की 11वीं शताब्दी में अपने अभ्युदय से लेकर आज तक भी यह गच्छ जैनधर्म के लोक कल्याणकारी सिद्धान्तों का पालन कर विश्व के समक्ष एक उज्जवल आदर्श उपस्थित कर रहा है। कहा जाता है कि संवत् 1080 में दुर्लभराज की सभा में जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ था, फलतः चैत्यवासियों की पराजय हुई, गुर्जर महाराज ने श्री जिनेश्वरसूरि का पक्ष 'खरा' अर्थात् सत्य प्रमाणित किया, तभी से उनका समुदाय 'खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । खरतरगच्छ में बड़ी संख्या में विदुषी साध्वियाँ गणिनी, प्रवर्तिनी महत्तरा आदि पदों को प्राप्त कर चुकी हैं। अनेक साध्वियों ने साहित्य-सृजन, तपाराधना एवं शासन प्रभावना के कार्य कर संपूर्ण भारतीय संस्कृति को समृद्ध एवं पवित्र बनाने में महान योगदान दिया। चैत्यवास का उन्मूलन कर सुविहित मार्ग की पुनः प्रतिष्ठा करने में प्रभावक आचार्यों, उपाध्यायों के साथ-साथ विदुषी साध्वियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही । खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावली, खरतरगच्छ इतिहास, स्वर्णगिरि जालोर आदि में इस गच्छ के महान आचार्यों, साधुओं एवं सैंकड़ों साध्वियों की दीक्षा, पद-प्रदान, शासन प्रभावना आदि बातों पर प्रकाश डाला गया है। साध्वियों का श्रृंखलाबद्ध इतिहास ज्ञात करने के लिये श्री जिनपतिसूरि के शिष्य श्री जिनपाल उपाध्याय द्वारा संकलित खरतरगच्छ गुर्वावली का उपयोग किया है, इसमें संवत् 1277 तक का इतिवृत्त है, इसके पश्चात् 'खरतरगच्छ युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' में संवत् 1393 तक अर्थात् श्री जिनोदयसूरि तक का इतिहास संकलित है। उसके पश्चात् मध्य के 400 वर्षों में व्यवस्थित क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा गया, अतः जिनराजसूरि 'प्रथम' (सं. 1432) से लेकर श्री जिनसुखसूरि ( संवत् 1779) तक कुछ छुटपुट साध्वियों की ही जानकारी उपलब्ध हो सकी है। उसके पश्चात् 'खरतरगच्छ दीक्षा नंदी सूची' में पुनः संवत् 1800 से अद्यतन पर्यन्त श्रमणियों की दीक्षाओं का उल्लेख है।
2. वही, भाग 4, पृ. 629
3. अ. भं. नाहटा, युगप्रधान जिनचंद्रसूरि, पृ. 11
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