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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास निर्वाण के पश्चात् भी श्रमणी - परम्परा निर्व्याघात रूप से चली, जिसका काल 50 लाख करोड़ सागर और 12 लाख पूर्व का निर्धारित किया गया है, तत्पश्चात् तीर्थंकर अजितनाथ के श्रमणी संघ की संचालिका महासती फल्गुजी हुईं। 2
इसी प्रकार आगे भी प्रत्येक तीर्थंकर के काल में श्रमणी संघ वेग से गतिमान रहा, इसकी पुष्टि जैन इतिहास ग्रंथों में वर्णित आंकड़ों से होती है । यद्यपि सुविधिनाथ से शांतिनाथ तक सात तीर्थंकरों के अन्तराल काल में क्रमशः पौन पल्य, एक पल्य, पौन पल्य, अर्ध पल्य और पाव पल्य कुल 4 पल्य धर्म तीर्थ का विच्छेद रहा। उस समय श्रमणी-संघ रूपी सरिता का प्रवाह भी रूक गया था, किंतु पुनः सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ से भगवान महावीर तक चतुर्विध जैन संघ अपने उत्कर्ष में चलता रहा। तीर्थंकर काल की 16वीं श्रमणी - प्रमुखा ' श्रुति' से 'चन्दनबाला' तक और उनके पश्चात् आज तक श्रमणी संघ की अखंड धारा अनवरत प्रवाहित है, उसके मध्य व्यवधान नहीं आया। 2.2 तीर्थंकरकालीन श्रमणियों पर एक समीक्षात्मक दृष्टि
जैन आगम - साहित्य का अवलोकन करने पर यह तथ्य स्पष्ट होता है कि प्रत्येक तीर्थंकर के काल में श्रमणियों की संख्या हजारों या लाखों में पहुँची है भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर काल तक की श्रमणियों की संख्या 48 लाख आठसौ 70 हजार आंकी गई है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक तीर्थंकर के निर्वाण और नये तीर्थंकर के जन्म के मध्यवर्ती समय में भी श्रुतधर आचार्यों के काल की श्रमणियाँ गणनातीत संख्या में हैं, किंतु खेद है कि संयम, तप, त्याग की साक्षात् मूर्ति भगवती स्वरूपा इन श्रमणियों का संपूर्ण इतिहास अतीत की गोद में विलुप्त हो चुका है। उनका नाम तक भी आज उपलब्ध नहीं होता। 23 तीर्थंकरों के शासन काल के साक्षी अंतिम तीर्थंकर सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने उन अज्ञात अतीत की श्रमणियों में कितनों को शब्दायित किया है, यह प्रयत्न पूर्वक खोजने पर भी नहीं मिलता। वर्तमान आगम - साहित्य एवं प्राचीन ग्रंथों में तीर्थंकरों की प्रमुखा श्रमणियों के नाम एवं शेष श्रमणियों की मात्र संख्या ही उपलब्ध होती है। प्रमुखा श्रमणियों में प्रथम तीर्थंकर की शिष्या ब्राह्मी सुन्दरी तथा अंतिम तीर्थंकर महावीर की प्रमुखा शिष्या चन्दनबाला का यत्किंचित् वृतान्त उपलब्ध होता है, शेष श्रमणियाँ जो तीर्थंकरों के विशाल श्रमणी संस्था की संवाहिका रहीं, उनका वृत्तान्त न मिलना एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है।
कतिपय वैचारिक भिन्नताएँ
यद्यपि तीर्थंकर कालीन जैन श्रमणी इतिहास का मूल आधार भगवान महावीर की वाणी है तथापि जैन श्रमणी विषयक ऐतिहासिक मान्यताओं में कुछ मतभेद दिखाई देते हैं। उसका कारण कालप्रभाव, स्मृति भेद, दृष्टि भेद, श्रुतिभेद आदि हैं। ये ही विभिन्न मान्यताएँ कालान्तर में प्रमुख रूप से दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यताओं के रूप में प्रकट हुई जैसे
1. नाम व संख्या भेद - श्रमणियों के नाम एवं संख्या में श्वेताम्बर - दिगम्बर के मध्य कहीं साम्य तो कहीं वैषम्य दिखाई देता है, जैसे द्वितीय तीर्थंकर की प्रमुखा साध्वी श्वेताम्बर - परम्परा के अनुसार 'फल्गु' है, तो दिगम्बर- परम्परा मे उसे 'प्रकुब्जा' कहा है। इसी प्रकार तृतीय तीर्थंकर की प्रमुखा साध्वी श्वेताम्बर परम्परा में 'श्यामा' और दिगम्बर परम्परा में 'धर्मश्री' के रूप में उल्लिखित है, इसी प्रकार अन्यत्र भी नामों में फर्क आया है।
2. वही, पृ. 216
3. N. Shanta, THE UNKNOWN PILGRIMS, पृष्ठ 270 चित्र 6
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