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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
एवं दोहित्र आदि की लालसा का अनुभव करने लगी। साध्वी सुव्रता ने इसका निषेध किया तो वह स्वतंत्र रहकर अपनी भावना को पूर्ण करने लगी। अंत समय तक वह शिथिलाचारिणी बनी रही। आयुष्य पूर्ण कर सौधर्मकल्प विमान में "बहुपुत्रिका देवी" के रूप में उत्पन्न हुई।
वहाँ से च्यवकर विन्ध्यगिरि की तलहटी के बेभेल सन्निवेष में ब्राह्मण कुल की कन्या के रूप में जन्म लेगी। सोमा नाम से प्रसिद्ध उस कन्या का राष्ट्रकूट के साथ विवाह होगा। और प्रत्येक वर्ष में सन्तान युगल को जन्म देकर 16 वर्ष में बत्तीस बालकों का प्रसव करेगी। इतने बच्चों के पालन-पोषण से परेशान सोमा तत्कालीन सुव्रता आर्या से निर्ग्रन्थ धर्म का श्रवण करके प्रव्रजित होगी। उनके पास ग्यारह अंगों का अध्ययन एवं तपः कर्म का आराधन कर वह मासिकी संलेखना से मृत्यु प्राप्त कर शक्रेन्द्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न होगी। दो सागरोपम की स्थिति भोगकर वह वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध बुद्ध और मुक्त होगी।137
2.4.3 नंदश्री
वाराणसी के भद्रसेन जीर्णश्रेष्ठी की भार्या नन्दा की पुत्री नंदश्री वर विवर्जिता थी, उसने भगवान पार्श्वनाथ का उपदेश श्रवण कर गोपालिका आर्या से जिनदीक्षा धारण की। प्रारंभ में सिंह की भांति पराक्रम दिखाकर अंत में शिथिलाचारिणी हो गई। शौच धर्म को महत्व देने लगी। गुरुणी के द्वारा निषेध करने पर वह पृथक् उपाश्रय में रहने लगी। अंत समय तक भी शिथिलाचार की आलोचना न करेने से वह देवी बनी।137
2.4.4 पांडुरार्या
आवश्यक नियुक्ति एवं दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति में माया कषाय के संदर्भ में पाण्डुरार्या नामक साध्वी का वर्णन है। वह शिथिलाचारिणी साध्वी थी, पीत संवलित वस्त्र पहनने के कारण लोग उसे 'पाण्डुरार्या' के नाम से जानते थे। वह विद्यासिद्ध थी, बहुत से वशीकरण उच्चाटन आदि मंत्रों की ज्ञाता होने से लोगों की भीड़ इकट्ठी होने लगी। आचार्य ने उसे विद्या, मंत्र आदि के प्रयोग का निषेध किया, किन्तु एकाकिनी हो जाने से पुनः उसने लोगों को बुलाना आरंभ किया एवं आचार्य के पूछने पर कहती-"ये सब पूर्व अभ्यास से आते हैं।" इस मायाचरण की आलोचना किए बिना ही मृत्यु प्राप्त कर वह सौधर्मकल्प में ऐरावत की अग्रमहिषी के रूप में उत्पन्न हुई। एकबार भगवान् महावीर के समवशरण में हस्तिनी का रूप धारण करके आई, भगवान ने उसका पूर्वभव बताकर अपने साधु-साध्वियों को माया न करने की शिक्षा दी। 39
2.4.5 अंनगसुन्दरी
पार्श्व निर्वाण संवत् 94 से 166 के मध्य आर्य समुद्रसूरि भगवान पार्श्वनाथ के तृतीय पट्टधर रहे थे, उनके आज्ञानुवर्ती विदेशी नामक एक मुनि के त्याग-वैराग्य पूरित उपदेश से प्रभावित होकर उज्जैन के राजा जयसेन ने रानी
137. पुष्पिका अ. 43; प्राप्रोने. 2 पृ. 826 138. आव. नि. हरि. वृ., भा. 2 पृ. 260 139. आव. नि. हारि व., भा. 1 पृ. 262; दशा. नि. गा. 108, 109; दृ. डॉ. अशोककुमार सिंह, दशाश्रुतस्कंधनियुक्तिः एक अध्ययन,
पृ. 144 वाराणसी ई. 1998
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