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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
समीक्षा
इन उल्लेखों के आधार पर हम यह विश्वसनीय तौर पर कह सकते हैं कि उस समय साध्वी संघ उज्जैन, कौशाम्बी आदि राज्यों में या उसके आसपास पैदल विहार कर जैनधर्म का प्रचार-प्रसार करता था, ये राज्य भी जैनधर्म के महत्वपूर्ण केन्द्र रहे होंगे, इस बात की पुष्टि धारिणी के उज्जैन से कौशाम्बी में आकर दीक्षा ग्रहण करने से भी होती है। महत्तरा विनयमती एवं उनकी साध्वियों से धारिणी का पूर्व परिचय होना भी संभवित लगता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि महत्तरा विनयवती वी. नि. की प्रथम शताब्दी के प्रथम चरण में किसी छोटे या बड़े साध्वी-संघ की प्रमुखा थी। 3.3.1.9 यक्षा आदि सात साध्वी-भगिनियां (वी. नि. दूसरी-तीसरी शती)
__जैन-परम्परा में महासती चंदनबाला के पश्चात् यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदिन्ना, सैणा, वैणा, रैणा इन सात महाश्रमणियों का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इन्होंने अपनी अद्भुत मेधा-शक्ति से उस समय के प्रकाण्ड विद्वान् वररूचि के मान को भी विगलित किया था। ये सातों पाटलिपुत्र के नन्दराजा महापद्म के महामंत्री शकडाल की सुपुत्रियाँ थीं। तथा स्थूलिभद्र एवं श्रीयक की बहनें थी। इन सातों बहनों एवं दोनों भाइयों ने आचार्य संभूतिविजय के पास साध्वी-संघ में दीक्षा अंगीकार की।
प्राचीन ग्रंथों में ऐसा उल्लेख आता है कि एकबार साध्वी यक्षा की प्रेरणा से भाई श्रीयकमुनि ने पर्युषण पर्व पर उपवास की आराधना की, किन्तु भूख से व्याकुल होकर उसी रात्रि उसका देहान्त हो गया। इस अप्रत्याशित घटना से साध्वी यक्षा को अत्यन्त पश्चाताप हुआ। तीन दिन अन्न-जल का त्याग कर उसने शासनदेवी की आराधना की और उनके सहयोग से महाविदेह क्षेत्र में सीमंधर प्रभु के श्रीमुख से अपनी निर्दोषता श्रवणकर तथा उनकी वाणी अपनी अद्भुत स्मरणशक्ति में रखकर भरतक्षेत्र में लाई। इनके द्वारा लाई गई चार चूलिकाओं में से दो चूलिकाएँ संघ ने आचारांग के प्रथम दो अध्ययनों के रूप में तथा अन्तिम दो को दशवैकालिक के अंत में स्थापित किया।
कुछ विद्वानों ने इस कथानक की प्रामाणिकता में सन्देह प्रकट किया है। दशवैकालिक सूत्र के चूर्णिकार अगस्त्यसिंहसूरि ने भी इन दोनों चूलिकाओं को आचार्य शय्यंभव द्वारा रचित होना ही सूचित किया है। लेकिन महाविदेह से लाई जाने वाली बात का कोई कथन उन्होंने नहीं किया। अतः यह किंवदंती चूर्णिकार के बाद किसी ने किसी कारण से प्रचारित की है, जो बाद में ग्रन्थों में लिख दी गई है। अस्तु, इतना अवश्य है कि साध्वी यक्षा आदि उस युग की अद्वितीय प्रतिभा सम्पन्न परमप्रभाविका महासाध्वी थी। अपनी अद्भुत स्मरण-शक्ति से अथाह ज्ञान अर्जित कर इन सभी ने अनेक वर्षों तक जिनशासन की महती सेवा की। कहा जाता है कि आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति को आचार्य स्थूलिभद्र ने बाल्यावस्था से ही यक्षा साध्वी को सौंपा हुआ था। उसके ज्ञान-निर्झर से सिंचित ये दोनों ही आगे चलकर महाप्रभावक आचार्य बने।
54. (क) आव. नि. हरि. वृ., भाग 2, पृ. 139 (ख) आव. चू., भाग 2 पृ. 183 55. महाविदेहे य पुच्छिका गता अज्जा, दोवि अज्झयणाणि भावणा विमोत्तीय आणिताणि। -आव. चू., भाग 2 पृ. 188 56. देखें-त्रीणि छेदसूत्राणि, मुनि कन्हैयालाल 'कमल' द्वारा लिखित प्रस्तावना 57. पं. कल्याणविजयजी, तपागच्छ पट्टावली, पृ. 48
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