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अध्याय 2 प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक
निर्ग्रन्थ परम्परा की श्रमणियाँ
अतीत को जानने के दो कोण हैं-प्रागैतिहासिक काल और ऐतिहासिक काल। इतिहास की सामग्री-लिखित साहित्य, अभिलेख, पुरातत्त्व, उत्खनन से प्राप्त सामग्री, मूर्ति, सिक्के आदि के आधार पर इतिहास काल का निर्धारण किया जाता है, जो उससे अतीत है, वह प्रागैतिहासिक काल है।
जैनधर्म में मान्य 24 तीर्थंकरों में से 21 तीर्थंकर एवं उनकी श्रमणियों का काल प्रागैतिहासिक है, उन्हें पुरातत्त्व सामग्री में खोजना एक प्रयास मात्र है। 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को श्रीकृष्ण अपना अध्यात्मगुरू मानते थे, अतः श्रीकृष्ण के समान ही वे पौराणिक व ऐतिहासिक व्यक्तित्व सिद्ध होते हैं। तीर्थंकरों के क्रम में तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ आधुनिक इतिहासविदों द्वारा ऐतिहासिक पुरुष प्रमाणित हुए हैं। उनका समय भगवान महावीर से लगभग 250 वर्ष पूर्व था।' उनकी परम्परा के कई मुनि भगवान महावीर के संघ में सम्मिलित हुए थे, अतः पार्श्वनाथ तथा महावीर प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुरूषों में परिगणित होते हैं। 2.1 जैन श्रमणी संघ का उद्भव और विकास
जैन इतिहास के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी काल के तृतीय-चतुर्थ पर्व में ये 24 तीर्थंकर इस भारतभूमि पर अवतरित हुए। उन्होंने इस सृष्टि के जीवों को आत्मा से परमात्मा, नर से नारायण बनने का मार्ग दिखाया। लिंग, वेष, जाति या देश के आग्रह से मुक्त उनका अहिंसामय संदेश सबके लिये समान रूप से आचरणीय था। उनके उदारतावादी दृष्टिकोण के फलस्वरूप पुरूषों के साथ हजारों-लाखों महिलाएँ भी उस अध्यात्म-पथ पर बढ़ने के लिये अग्रसर हुईं। भगवान ऋषभदेव इस आर्यावर्त में सर्वप्रथम श्रमणधर्म के उपदेष्टा हुए। उनके उपदेशों से 84 हजार पुरूष श्रमण एवं तीन लाख महिलाएँ श्रमणी धर्म में प्रविष्ट हुई। महिलाओं में श्रमणी धर्म का सूत्रपात करने वाली भगवान ऋषभदेव की ही कन्याएँ-ब्राह्मी और सुन्दरी थीं। उस समय उन दोनों की आयु 77 लाख पूर्व की थी, वे 7 लाख पूर्व तक श्रमणी-परम्परा की संवाहिकाएँ रहीं, अंत समय में संपूर्ण कर्मों का क्षय कर निर्वाण को प्राप्त हुईं। उनके 1. डॉ. मोहनलाल मेहता, जैनधर्म दर्शन, पृ. 609
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