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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
श्री रामचन्द्रजी ने कलिंगाधिपति अतिवीर्य को राजा भरत पर चढ़ाई करते सुना, वे अतिवीर्य को पराजित करने के लिये प्रस्थान से पूर्व पास ही के एक जिनमंदिर में गये, वहाँ संयम, तप व ध्यान में लीन आर्यिकाओं के संघ को देखकर उन्होंने भक्तिपूर्वक उनको नमस्कार किया, और वहीं आर्यिका संघ की गणिनी वरधर्मा के पास सीता को सुरक्षा हेतु रखा और जब अतिवीर्य को पराजित कर पुन: आये तो राम ने सर्व संघ के साथ विराजित वरधर्मा गणिनी की पूजा-भक्ति भी की।
वरधर्मागणिनी के समान ही रामयुग में गणिनी सुप्रभा,2 गणिनी हरिकांता गणिनी लक्ष्मीवती, गणिनी शशिकान्ता, गणिनी पृथ्वीमती, गणिनी बंधुमती”, गणिनी श्रीमती, गणिनी चरणश्री आदि महत्तरा पद पर प्रतिष्ठित श्रमणियाँ एक सुव्यवस्थित विशाल श्रमणी-संघ का नेतृत्व करती थीं साथ ही अत्यंत प्रभावसंपन्ना थीं, जिनके पास राजवैभव में पली उच्चकुल की स्त्रियाँ दीक्षा लेकर आत्मोद्धार का मार्ग प्रशस्त करती थीं।
2.3.46 अमला
अमला इक्कीसवे तीर्थंकर श्री नमिनाथजी की प्रमुख शिष्या थीं। इनका श्रमणी परिवार इकतालीस हजार था, दिगम्बर-ग्रंथों में इनका नाम 'मार्गिणी' या 'मंगिनी' उल्लिखित है। एवं श्रमणी संख्या पैंतालीस हजार मानी गई है।
2.3.47 यक्षिणी
श्वेताम्बर आगम व आगमेतर-साहित्य के अनुसार भगवान अरिष्टनेमि को दीक्षा के चउपन दिन पश्चात् आसोज कृष्णा अमावस्या के दिन उर्जयन्त नामक शैल शिखर पर केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति हुई उनके प्रथम समवसरण में ही अन्य क्षत्रिय राजकुमारों के समान 'यक्षिणी' नाम की राजकुमारी ने भी अनेक राजकन्याओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। यक्षिणी को प्रवर्तिनी पद प्रदान किया गया। आर्या यक्षिणी की नेश्राय में चालीस हजार श्रमणियाँ थी, उसमें से तीन हजार श्रमणियाँ सर्व कर्म क्षय कर मुक्ति पद की अधिकारिणी बनी।2
80. पद्मपुराण पर्व 39 81. त्रि. श. पु. च. 7/9/223 82. त्रि. श. पु. च. 7/10/65 83. त्रि.श.पु.च. 7/10/113 84. पद्मपुराण, पर्व 78/94-95, दृ.-जै. पु. को. पृ. 399 86. वही, पर्व 86 87. वही, 113/40-42, दृ.- जै.पु.को. पृ. 246 88. (क) त्रि. श. पु. च. पर्व 7/10/181 (ख) प. पु., पर्व 119 89. आगम और त्रिपिटक,खंड 4 पृ. 465 90. समवायांग पृ. 231 तीर्थो. 461, दू. प्राप्रोने. 1 पृ. 54-55 91. "जाया पवित्तिणी विय जक्खिणी सयलाण अज्जाणं" -आ. हेमचन्द्र, भवभावना 3712 92. त्रि.श.पु.च. 8/9/377, आवचू. भा. 1 पृ. 159 दृ. प्राप्रोने भा. 1 पृ. 272
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