Book Title: Bansidhar Pandita Abhinandan Granth
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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२६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशोधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
की बात कही। पण्डितजीको लेने जब वह डिब्बेमें गए खोजा तो पता चला कि पण्डितजी तो कभीके स्टेशनसे निकलकर रिक्से में बैठकर शहरमें निकल गए थे । सार्वजनिक सम्मानकी आकांक्षासे दूर जिनकी यह धारणा रही हो, जो भड़कीले सम्मानमें अपना सम्मान न समझ रहे हो यथार्थतः उनका ज्ञान ही अपना ज्ञान है । पण्डितजीके समीप जब भी उनसे मिलने गया और कोई भी सैद्धान्तिक चर्चा उनसे की, उन्होंने उसे इतनी गहराई और मौलिकतासे स्पष्ट किया। जो अपने आपमें प्राणवान रही----जीवन में ऐसा प्रभावी अधिकारी विद्वान मैंने एक ही देखा । यथार्यतः ऐसे ज्ञान प्रतिभाका सम्मान उस समाजका सम्मान है जिसके बीच में पण्डितजी जैसा देदीप्यमान दिवाकर आलोकित है।
ऐसे महान् गौरवशाली विद्वानके यशस्वी सुखी दीर्घ धर्ममय जीवनकी मंगल कामना करता हूँ । अद्वितीय साहित्य साधक • डॉ० प्रेम सुमन जैन, अध्यक्ष जैन विद्या एवं प्राकृत, उदयपुर वि० वि०, उदयपुर
साहित्यकी सेवा करना और समाजको मार्गदर्शन देना ये दोनों कार्य एक ही व्यक्ति द्वारा सम्पन्न करना और फिर भी समादृत बने रहना दुष्कर कार्य है। किन्तु मध्यप्रदेशके सपूत सरस्वती-वरदपुत्र पण्डित बंशीधरजी व्याकरणाचार्यने इस साहित्य और समाजके संगमको सुकर बना दिया है। आपने विभिन्न प्राच्यविद्याओंकी उपाधियाँ प्राप्त कर सरस्वतीकी आराधना की, अनेक तलस्पर्शी ग्रन्थों और शोध-खोजपूर्ण लेखों द्वारा अनुसन्धानको दिशाबोध दिया तथा समाजकी विभिन्न समस्याओंका समाधान प्रस्तुत कर उसे एकताके सूत्र में बाँधनेका प्रशस्त प्रयास किया। अतः आज यदि पण्डितजीको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जाता है तो वह सर्वथा उपयुक्त है।
पण्डितजीने साहित्य, समाज और राष्ट्रकी जो सेवाएँ की है, वे आदर्श है। जो इस राष्ट्रके नागरिक की पहिचान है। विद्यासे विनय और सादगी आती है, इस आदर्श के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं-व्याकरणाचार्यजी। मेरी उनके सुदीर्घ, स्वस्थ और सुखद जीवनके लिए हार्दिक मंगल कामनाएँ हैं। मेरे नानाजी • श्रीमती गुणमाला जैन, भारतीय स्टेट बैंक, इन्दौर
उनके बारेमें लिखू, क्या न लिखू ? कहाँसे शुरु करूं ? कहनेको तो इतना अधिक है कि यह लेखनी भी शायद थक जाये।
३ बजे सबेरे उठनेसे लेकर रात ९-९॥ बजे तककी उनकी दिनचर्याको मैंने बहुत नजदीक से देखा, समझा और सोचा भो। लेकिन अनुसरण नहीं किया। उनके सरल और यथार्थतावादी व्यक्तित्त्वके सामने अपना अस्तित्त्व ही खो बैठती हूँ। बीनामें मेरे अध्यापनका कुछ समय बीता और उनके सान्निध्यमें रहनेका सौभाग्य मिला । और उन बीती बातोंका पिटारा अभी वर्तमान तक सुरक्षित रखे हुये हूँ ।
नानाजीके व्यक्तित्वके समान मेरी नानीजीका भी व्यक्तित्त्व सीधा सादा था। रातभर बिस्तर पर बैठकर कहानी सुनाती थीं । ऐसी कहानी सुनाती थी, जिसमें सत्य ही सत्य था, संघर्ष था और निरन्तर चलते रहने की प्रेरणा भी, वह उन कहानियोंके नायक और कोई नहीं नानाजी थे। जिनपर आज पूरा समाज गर्व करता है।
कैसे बचपन बीता, कैसे बनारस पहुँचे, कैसे शादी हयी, कैसे स्वतंतत्रता-संग्राममें भाग लिया, किसलिये राजनैतिक जीवनसे संन्यास लिया और बीना जैन समाजके लिये गया-क्या सेवा की। यही उनमें था। यही कहानी में एक बार नहीं कई बार दुहराती है जब अपनोंमें बैठती हूँ तब ।
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