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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(२७) तस्मिन् ह्यत्यर्थतीक्ष्णोष्णरूक्षा मार्गस्वभावतः ॥
आदित्यपवनाः सौम्यान् क्षपयन्ति गुणान् भुवः ॥३॥ और तिसी उत्तरायणमें सूर्य और वायु अतितीक्ष्ण उष्ण-रूक्ष-कर मार्गके स्वभावसे पृथ्वाक सौम्य गुणोंको नाश करतेहैं ॥ ३ ॥
तिक्तः कषायः कटुको बलिनोऽत्र रसाः क्रमात् ॥
तस्मादादानमाग्नेयमृतवो दक्षिणायनम् ॥ ४॥ . तब क्रमसे तिक्त कपाय-कटु-ये रस बलवाले जाननें; शिशिरमें तिक्त, वसन्तमें कषाय, ग्रीष्ममें कटु बलवान् होताहै इसवास्ते पृथिवीके सौम्यगुणोंकी हानि और रूक्षरसोंका बढ़ना होता है इसवास्ते पूर्वोक्त रसोंका आदान अर्थात् ग्रहण अग्निरूपहै और शेष रहे वर्षा आदि तीन ऋतु दक्षिणायन हैं ॥ ४ ॥
वर्षादयो विसर्गश्च यहलं विसृजत्ययम् ॥
सौम्यत्वादत्र सोमो हि बलवान् हीयते रविः॥ ५॥ यह विसर्गाख्य काल है जिससे यह काल बलको देता है; इस विसर्गाख्य कालमें सौम्यपनेंसे चंद्रमा बलवान्है और सूर्यकी हानि होतीहैं ॥ ५ ॥
मेघवृष्ट्यनिलैः शीतैः शान्ततापे महीतले॥
सिग्धाश्चेहाम्ललवणमधुरा बलिनो रसाः॥६॥ मेघकी वृष्टि और शीतल वायुकरके शांत तापवाले पृथिवीमंडलमें स्निग्ध-अम्ल-लवणमधुर--ये रस दक्षिणायनमें बलवंत है यहांभी रसवृद्धि ऋतुके क्रमसे जाननी ॥ ६ ॥
शीतेऽयं वृष्टिधर्मेऽल्पं बलं मध्यन्तु शेषयोः॥
बलिनः शीतसंरोधाद्धेमन्ते प्रवलोऽनलः॥७॥ शीतकालमें मनुष्यों में उत्तम बल रहताहै, वर्षा और ग्रीष्मकालमें मनुष्योंके अल्पबल होताहै, और शेष रहे कालमें मनुष्योंके मध्यम बल होताहै, वलवाले मनुष्यके शीतके संरोधसे हेमंतऋतुमें बलवान् अग्नि होजाताहै ॥ ७ ॥
भवत्यल्पेन्धनो धातून् स पचेद्वायुनेरितः॥
अतो हिमेऽस्मिन सेवेत स्वाद्वम्ललवणान् रसान् ॥ ८॥ तब अल्प भोजनवाला और वायुकरके प्रेरित किया अग्नि धातुओंको पकाताहै इसवास्तै इस हिमकालमें स्वादु-अम्ल-लवण--इनरसोंको सेवतारहै ॥ ८ ॥
दैान्निशानामेतर्हि प्रातरेव बुभुक्षितः॥ अवश्यकार्य सम्भाव्य यथोक्तं शीलयेदनु ॥ ९॥
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