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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमैतम् ।
(२५) न सेवे और उदित तथा अस्तआदिको प्राप्तहुए सूर्यको न देखै अथवा राहुग्रस्तको न देखै और बोझको शिरपर न लेजाय ॥ ३८ ॥
नेक्षेत प्रततं सूक्ष्मदीप्तामेध्याप्रियाणि च ॥
मद्यविक्रयसन्धानदानादानानि नाचरेत् ॥ ३९ ॥ अविरत-सूक्ष्म वस्तु-प्रकाशित- शुद्धिसे रहित-अप्रिय-पदार्थों कोभी न देखे और मदिराका विक्रय अर्थात् लेना देना और मदिराका संधान मदिराका दान मदिराका ग्रहण इन्होंको आचरित न करै ॥ ३९ ॥
पुरोवातातपरजस्तुषारपरुषानिलान्॥
अनृजुक्षवथूगारकासस्वप्नान्नमैथुनम् ॥ ४०॥ पूर्वको वायु-धूलि-घाम-तुषार-कठोर वायुको न सेवै और विषम स्थिर शरीरवाला मनुष्य होकर छींक डकार-खांसी--शयन-अन्न-मैथुनको त्याग ॥ ४० ॥
कूलच्छायानृपद्विष्टव्यालदष्ट्रिविषाणिनः॥
हीनानार्यातिनिपुणसेवां विग्रहमुत्तमैः॥४१॥ तटकी छाया-राजाका वैर-दुष्ट हाथी आदि-सर्पआदि-गायआदि-इन्होंको और कुल शील धन आदिकरके हीन-सज्जनतासे रहित-अतिगणनातत्पर इन्होंकी सेवाको और उत्तमोंके साथ विग्रहको त्यागै ॥ ४१ ॥
सन्ध्यास्वभ्यवहारस्त्रीस्वप्नाध्ययनचिन्तनम् ॥
शत्रुसत्रगणाकीर्णगणिकापणिकाशनम् ॥ ४२ ॥ संध्यासमयमें भोजन-त्रीसंग-पठन-चिंतमन-शयन-को लागै, और शत्रुका भोजन-यज्ञका भोजन न करै ऋत्विगादिको छोड दूसरोंके उसके भोजनका आधिकार नहीं है । वेश्या चारणा. दिसे व्याप्त भोजन-गण्योपजीवीका भोजन न करै ॥ ४२ ॥
गात्रवनर्वायं हस्तकेशावधूननम् ॥
तोयाग्निपूज्यमध्येन यानं धूमं शवाश्रयम् ॥ ४३ ॥ अंग-मुख-नख-से वाद्यको त्यागै, हाथ और बालोंके कंपनको न करे और दो प्रकारके बहते हुये जलोंके मध्यमें तथा २ प्रकारके अग्नियोंके मध्यमें तथा २ प्रकारके पूज्योंके मध्यमें गमन न कर और मुरदेके शरीरसे उपजे धूमको त्यागै ॥ ४३ ॥
अयातिसक्तिं विश्रम्भस्वातन्त्र्ये स्त्रीषु च त्यजेत् ॥
आचार्यः सर्वचेष्टासु लोक एव हि धीमतः॥४४ मदिराका अतिपान-स्त्रियोंमें विश्वास और स्वतंत्रताको त्यागै, और बुद्धिमानको सब चेष्टाओमें संसारही आचार्य अर्थात् उपदेशकरनेवाला है ॥ ४४ ॥
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