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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(२३) संपत और विपत्में समानमनवाला रहै और हेतु अर्थात् अतिगुणवान् आदिको देखकर तिसके समान होनेकी इच्छाकरे, परंतु दूसरेके धन आदिको देखकर ईर्षा नहीं करै, हित और प्रमाणित और सत्य और प्रिय वचनको समयमें बोले ॥ २५ ॥
पूर्वाभिभाषी सुमुखः सुशीलः करुणामृदुः ॥
नैकः सुखी न सर्वत्र विश्रब्धो न च शङ्कितः॥ २६ ॥ सबोंसे आपही पहले बोले और मुखपै भ्रुकुटियोंको न चढावै और शोभन प्रकृतिवाला रहै, दयाकरके कोमल बना रहै, और जब अकेलाहो तबही आपेको सुखी न मानै और सब जगह विश्वासको नहींकरै, और न सब जगह शंकित रहै ॥ २६ ॥
न कञ्चिदात्मनः शत्रु नात्मानं कस्यचिद्रिपुम्॥
प्रकाशयेन्नापमानं न च निःस्नेहतां प्रभोः ॥ २७ ॥ न किसीको आपना वैरी, और न आपको किसीका वैरी प्रकाशित करै, और अपने अपमानको और स्वामीके स्नेहके अभावको किसीके अगाडी प्रकाशित नहीं करै ॥ २७ ॥
जनस्याशयमालक्ष्य यो यथा परितुष्यति ॥
तं तथैवानुवर्तेत पराराधनपण्डितः ॥२८॥ मनुष्यकी प्रकृतिको जानकर जो जैसे प्रसन्न होवै, तिसको तैसेही प्रसन्न करै, क्योंकि दूसरेको प्रसन्न करनेमें चतुररहै ॥ २८ ॥
न पीडयेदिन्द्रियाणि न चैतान्यतिलालयेत्॥
त्रिवर्गशून्यं नारम्भं भजेत्तञ्चाविरोधयन् ॥ २९॥ जीभ आदि इंद्रियोंको न तो पीडितकर, और न बहुत लाड लडात्रै, और आपसमें विरोधको दूर करता हुआ मनुष्य धर्म-अर्थ-काम--से शून्य आरंभको सेवै नहीं ॥ २९ ॥
_अनुयायात्प्रतिपदं सर्वधर्मेषु मध्यमाम् ॥
नीचरोमनखश्मश्रुर्निर्मलाऽध्रिमलायनः॥३०॥ ___ सब धर्मों में मध्यममार्गको प्राप्तहोवे और रोम-बाल-नख-डाढी-मूंछ-को कटाये रहे, तथा स्वच्छ रखे, और पैर-नासिका-कान-आदिको साफरखे ॥ ३० ॥
स्नानशीलः सुसुरभिः सुवेषोऽनुल्बणोज्ज्वलः।
धारयेत् सततं रत्नसिद्धमन्त्रमहौषधीः ॥३१॥ नित्यप्रति स्नान करे, और सुगंधको धारै,सुन्दरवेषको धारै और उद्धतपनेसे रहित वेषको धारै. प्रकाशितरहै, रत्न-सिद्धमंत्र-महौषधिको निरंतर धारता रहै ॥ ३१ ।।
सातपत्रपदत्राणो विचरेयुगमात्रदृक् ॥ निशि चात्ययिके कार्ये दण्डी मौली सहायवान् ॥ ३२ ॥
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