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(२४)
अष्टाङ्गहृदये__ छत्र और जूतीके जोडेको धारण करनेवाला और चार हाथपारमित पृथिवीको देखता हुआ विचरे, रात्रिमें और आत्ययिक कार्यमें दंडको धारण करनेवाला, शिरपै वेष्टनवाला सहायसे संयुक्त होकर विचरै ॥ ३२ ॥
चैत्यपूज्यध्वजाशस्तच्छायाभस्मतुषाशुचीन् ॥ _नाकामेच्छर्करालोष्टबालिस्नानभुवोऽपि च ॥३३॥ देवताधिष्ठित वृक्षविशेष-गुरुपुत्रआदि-चिह्न-चांडालआदिकी छाया-भस्म-अन्न आदिका फोलर-विष्ठा-सूक्ष्म पत्थरकी रेती-मट्टीक पिंडका टुकडा-बलिदान और स्नानकी पृथिवीको उलंधै नही ॥ ३३ ॥
नदी तरेन्न बाहुभ्यां नाग्निस्कन्धमभिवजेत् ॥
सन्दिग्धनावं वृक्षश्च नारोहेढुष्टयानवत् ॥३४॥ - बाहुओंके द्वारा नदीको नहीं तिरै, और अग्निके समूहके सम्मुख गमन नहीं करै और शिथिल बंधन आदिसे संयुक्त नाव और संदिग्ध वृक्ष और दुष्ट सवारीपै न चडै ॥ ३४ ॥
नासंवृतमुखः कुर्यात् क्षुतिहास्यविजुर भणम् ॥
नासिकां न विकुष्णीयान्नाकस्माद्विलिखेद्भुवम् ॥ ३५॥ हाथ आदिसे मुखको आच्छादित किये विना छीक-हास्य-जंभाई-को न करै और नासिकाको न खेंचे अर्थात् मलका त्याग विना नालिका में शब्द न करे और कारणके विना पृथिवीको न खोदै ॥ ३५ ॥
ना.श्चेष्टेत विशुणं नास्तीतोत्कटकस्थितः ।।
देहबाक्चेतला चेष्टा प्राक नमाद्विविधतयेत् ॥ ३६॥ हाथ पैर आदि अंगोंकरके गुणसे रहित हुये पदार्थकी चेष्टा नहीं करे, और उत्कट आसनसे स्थित न होवे और श्रमसे पहलेही देह-वाणी-चित्त-की चेष्टाओंको निवृत करै ॥ २६ ॥
नोर्बुजानुश्चिरं तिष्ठेश सेवेत न द्रुमम् ॥
तथा चत्वरचैत्यान्त चतुष्पथसुरालयान् ॥ ३७॥ ऊपरको पैरोंको करके चिरकालतक स्थित होवे नहीं और रात्र में वृक्ष-चौराहा-देवताधिष्ठित वृक्ष-तिराहा--देवताका स्थान-इन्होंको सबै नहीं । रातको वृक्षों का स्वास निकलता है उससे स्वस्थताकी हानि होती है ॥ ३७॥
सूनाटवीशून्यगृहश्मशानानि दिवापि च ॥
सर्वथेक्षेत नादित्यं न भारं शिरसा वहेत् ॥ ३८॥ ___ और जीवोंको मारनेका स्थान--मनुष्योंसे रहित देश--शून्यस्थान श्मशान--इन्होंको दिनमेंभी
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