________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
हिता
(२२)
अष्टाङ्गहृदये जीर्णहुये अन्नमेंभी हित और प्रमाणित भोजनको खावै,और हठसे वातमूत्रआदिवेगोंकोन धारै १८॥ . न वेगितोऽन्यकार्यः स्यान्नाजित्वा साध्यमामयम् ॥
सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः॥१९॥ वात मूत्र आदि वेगोंवाला मनुष्य अन्यकार्यमें युक्त न होवै और साध्यरूप रोगकोभी दूरकरे । विना अन्य कार्यमें युक्त न हो क्योंकि सर्वप्राणियोंकी सब प्रवृत्तिये सुखको होती हैं ॥१९॥
सुखञ्च न विना धर्मात्तस्माद्धर्मपरो भवेत् ॥
भक्त्या कल्याणमित्राणि सेवेतेतरदूरगः॥ २० ॥ और वह सुख धर्मके विना नहीं होता, इसवास्ते मनुष्यको धर्ममें तत्पर रहना और कपटसे रहित बुद्धिवाला होकर मनुष्य भक्तिके द्वारा कल्याणरूप मित्रोंको सेवता रहै ॥ २० ॥
हिंसास्तेयान्यथाकामं पैशुन्यं परुषानृते॥
सम्भिन्नालापव्यापादमभिध्याग्विपर्ययम्॥ २१॥ हिंसा अर्थात् प्राणियोंको दुःख देना, चोरी,निषिद्ध कामकी सेवा अर्थात् गुरुकी स्त्रीका संग आदि, चुगली, कठोर बोलना, मिथ्याबोलना, असंबद्ध बोलना-प्राणियोंको दुःख देनेकी चिंता, दुसरेके गुणोंको नहीं सहना, नास्तिकपना ॥ २१॥
पापं कर्मेति दशधा कायवाङ्मानसैस्त्यजेत् ॥
अवृत्तिव्याधिशोकानिनुवर्तेत शक्तितः ॥२२॥ ये दशप्रकारके पाप मनुष्यको शरीर-वाणी-मनसे त्याग देने चाहिये और जीविकासे रहित रोगी-शोकी-मनुष्योंका उपकार अपनी शक्ति के अनुसार करता रहै ॥ २२ ॥
आत्मवत् सततं पश्येदपि कीटपिपीलिकम् ॥
अर्चयेदेवगोविप्रवृद्धवैद्यनृपातिथीन् ॥ २३॥ कीट और कीडीआदि सूक्ष्मजीवोंकोभी निरंतर अपने समान देखता रहै, और देवता गौ ब्राह्मण, वृद्ध, वैद्य,राजा, आथिति अर्थात् अभ्यागत इन्होंको पूजता रहै ॥ २३ ॥
विमुखान्नार्थिनः कुर्यान्नावमन्येत नाक्षिपेत् ॥
उपकारप्रधानः स्यादपकारपरेप्यरौ ॥ २४॥ याचना करनेवालों को पदार्थसे नाटै नहीं और न अपमानकरै और न कठोरवचन कहै और अपने संग बुरापन करनेवाले वैरीपैभी उपकार करनेकी इच्छा रक्खे ॥ २४ ॥
सम्पद्विपत्स्वेकमना हेतावीयेत् फले न तु ॥ काले हितं मितं ब्रूयादविसंवादि पेशलम् ॥२५॥
For Private and Personal Use Only