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(२०)
अष्टाङ्गहृदयेमनुष्यके नेत्र आग्नेयरूप हैं, और विशेषसे कफका भय रहताहै, इसवास्ते स्त्रावण अर्थात नेत्रके पानीको निकासनेको सात २ रात्रिमें रसांजन अर्थात् दारुहलदीके क्वाथसे उत्पन्न हुये रसको नेत्रोंमें योजित करता रहै ॥ ५ ॥
ततो नावनगण्डूषधूमताम्बूलभाग्भवेत् ॥
ताम्बूलं क्षतपित्तास्त्ररूक्षोत्कुपितचक्षुषाम् ॥६॥ पीछे नस्य-कुला-धूम-नागरपानको सेवे, परंतु क्षतवाले और रक्तपित्तवाले और उत्कुपिननेत्रोंवाले ॥६॥
विषमू मदानामपथ्यं शोषिणामपि ॥
अभ्यङ्गमाचरेन्नित्यं स जराश्रमवातहा ॥ ७ ॥ और विष–मूर्छा-मदसे पीडित और शोषी इन्होंको नागरपानका चाबना बुरा है, और नित्यप्रति अभ्यंग अर्थात् मालिस आदिको आचरित करता रहै क्योंकि यह अभ्यंग बुढापा-परिश्रमवातको नाशता है ॥ ७ ॥
दृष्टिप्रसादपुष्टयायुःस्वप्नसुत्वक्त्वदायकृत् ।।
शिरःश्रवणपादेषु तं विशेषेण शीलयेत् ॥ ८॥ __ और दृष्टिकी स्वच्छता-पुष्टि--आयु-त्वचाकी सुंदरता दृढपना इन्होंको करताहै परन्तु तिस अभ्यंगको शिर-कान-पैर-इन्होंमें विशेषकरके अभ्यस्त करता रहै ।। ८ ॥
वयोऽभ्यङ्गः कफग्रस्तकृतसंशुद्धयजीर्णिभिः॥ __ लाघवं कर्मसामर्थ्य दीप्तोऽग्निर्मेदसः क्षयः॥९॥
कफ करके ग्रस्त और वमन विरेचन आदि शुद्धिको किये हुये और अजीर्णवाले मनुष्यको अभ्यङ्गका वर्जना उचित है, शरीरका हलकापन-कम्मों में सामर्थ्य-अग्निका दीप्तपना मेदका क्षय ॥९॥
विभक्तघनगात्रत्वं व्यायामादुपजायते ॥
वातपित्तामयी बालो वृद्धोऽजीर्णी च तं त्यजेत् ॥१०॥ ___ विभाग करके स्थित और पुष्टरूप अंगोंका होजाना ये सब व्यायाम अर्थात् कसरतसे होते हैं, • और वातपित्तयुक्त रोगी-बालक-वृद्ध-अजीर्णी-ये मनुष्य व्यायामको न करें ॥ १० ॥
अर्द्धशक्त्या निषेव्यस्तु बलिभिः स्निग्धभोजिभिः ॥
शीतकाले वसन्ते च मन्दमेव ततोऽन्यदा ॥ ११॥ बलवाले और स्निग्ध भोजनबाले मनुष्योंको आधी शक्तिसे व्यायामको सेवनी उचित है शीतकालमें और वसन्तकालमें व्यायामको सेवै, और अन्यकालोंमें थोडे व्यायामको सेवै अर्थात् थोडी कसरत करै ॥ ११ ॥
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