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ज्ञानी ने वीतद्वेष बनाया है, अब उनके साथ बैठकर वीतराग होना
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भूख लगती है, प्यास लगती है, नींद आती है, थकान लगती है, वह सब अशाता (दुःख-परिणाम) वेदनीय हैं। लगना अर्थात् सुलगना।
द्वेष हो जाता है और राग वह अपनी पसंद से है।
खुद की स्त्री काली हो और दूसरे की गोरी हो तो गोरी पर राग होता है। उसमें मूल कारण द्वेष है।
__ पहले द्वेष होता है तभी राग उत्पन्न होता है न! द्वेष के जाने के बाद, राग जाने में बहुत देर लगती है।
'मैं चंदूभाई हूँ' यह आरोपित जगह पर राग है और इसीलिए स्वरूप के प्रति द्वेष है।
दादा ज्ञान देते हैं तब अनंत काल के पाप नष्ट हो जाते हैं इसलिए द्वेष खत्म हो जाता है। उसके बाद डिस्चार्ज भाव से राग रहता है जो धीरे-धीरे जाता है।
सामने वाले के प्रति द्वेष के लिए प्रतिक्रमण करना है।
अटैक करना बंद हो जाए तो उसे धर्म कहते हैं। शास्त्र ऐसा कहते हैं कि तेरे भाव में अटैक नहीं है तो तू महावीर ही है!
यह अक्रम विज्ञान तो संपूर्ण विज्ञान है। यह बहुत बड़ा सिद्धांत कहलाता है।
[2.4] प्रशस्त राग आत्मा से संबंधित जो साधन हैं उनके प्रति यदि राग हो जाए तो, उसे प्रशस्त राग कहा गया है। इसमें सब से बड़ा साधन तो ज्ञानीपुरुष हैं, उसके बाद शास्त्र। अंत में यह राग भी निकालना पड़ेगा, तभी वीतराग हो पाएँगे। वीतद्वेष हो जाने के बाद ही प्रशस्त राग होता है।
प्रशस्त राग की अद्भुतता यह है कि इस राग के बाद द्वेष नहीं होता। यह राग संसार के सभी राग छुड़वाकर सिर्फ ज्ञानीपुरुष पर करवा देता है। इस राग से बंधन नहीं होता, यह मुक्ति देता है।
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