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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका
स्तुतिविद्या (जिनशतक) और रत्नकरण्ड श्रावकाचार (समीचीन धर्मशास्त्र) आप्तमीमांसा दश परिच्छेदों में विभक्त है और ये परिच्छेद विषयविभाजन की दृष्टिसे बनाये गये हैं । अकलंकदेवने भी इन परिच्छेदों का समर्थन किया है । यह कृति पद्यात्मक है और दार्शनिक शैलीमें रची गयी है । उस समय दार्शनिक रचनाएँ प्रायः पद्यात्मक और इष्टदेव की स्तुतिरूपमें रची जाती थीं । नागार्जनु, वसुबन्धु आदि दार्शनिकोंकी रचनाएँ इसीप्रकार की उपलब्ध होती हैं । अतः आचार्य समन्तभद्रने स्वयम्भूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन और आप्तमीमांसा ये तीन स्तोत्र पद्यात्मक एवं दार्शनिक शैलीमें बनाये हैं । आप्तमीमांसाकी व्याख्याएँ
वर्तमानमें आप्तमीमांसा पर संस्कृतमें तीन व्याख्याएँ उपलब्ध हैं१ अष्टशती (आप्तमीमांसाभाष्य ) २ अष्टसहस्री (आप्तमीमांसालंकार, देवागमालङ्कार) और ३ आप्तमीमांसावृत्ति (देवागमवृत्ति)
१. अष्टशती - इसके रचयिता आचार्य अकलंक हैं | यह अत्यन्त क्लिष्ट और गूढ़ रचना है । प्रत्येक परिच्छेदके अन्त में समाप्तिपुष्पिकावाक्यमें इसका ' आप्तमीमांसाभाष्य' के नामसे उल्लेख हुआ है । आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्रीके तृतीय परिच्छेदके प्रारम्भमें ग्रन्थकी प्रशंसा में जो पद्य दिया है, उसमें उन्होंने इसका नाम अष्टशती निर्दिष्ट किया है । संभवतः आठ सौ श्लोक प्रमाण रचना होनेसे इसे उन्होंने अती कहा है । इसका प्रत्येक स्थल अत्यन्त क्लिष्ट और गूढ़ है | इसके तात्पर्यको अष्टसहस्रीके द्वारा ही जाना जासकता है।
२. अष्टसहस्त्री – यह आचार्य विद्यानन्दकी महत्त्वपूर्ण रचना है ।
अष्टश० अष्टस० पृ० २९४
१. स्वोक्त परिच्छेदे शास्त्र ।
२. इत्याप्तमीमांसाभाष्ये प्रथमः परिच्छेदः ।
३. अष्टशती प्रथितार्था साष्टसहस्री कृतापि संक्ष ेपात् । विलसदकलङ्कधिषणैः
प्रपञ्चनिचितावबोद्धव्या ॥
४. सबसे पहले इसका प्रकाशन सन् १९१५ में सेठ नाथारंगजी गांधीके पुत्रों द्वारा निर्णयसागर प्रेस बम्बईसे हुआ था । प्रसन्नताकी बात है कि पूज्य आर्यिका १०५ ज्ञानमती माताजी कृत हिन्दी अनुवादके साथ अब इसका प्रकाशन श्री जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा कई भागों में हो रहा है । और इसके प्रथम भागका विमोचन अक्टूबर १९७४ में हो चुका है ।
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