Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीस्त्रे 'उक्कोसेण वि तिपलिओवमटिइएसु' उत्कर्षेणाऽपि त्रिपल्पोपमस्थितिकेषु 'उत्पन्नो भवतीति 'अवसेसं तं चेव' अवशेष तदेव यदेव पूर्व कथितं तदेव सर्वमिहापि ज्ञातव्यमिति । 'नवरं परिमाण ओगाहणा य नहा एयरसेव तइयगमए' नवरं परिमाणं शरीरावगाहना च यथा एतस्यैव-संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो. निकस्यैव तृतीयगमे परिमाणम् उत्कर्षतः संख्याता उत्पद्यन्ते, अवगाहना चोत्कर्षतो योजनसहस्रममाणा भवतीति । कायसंवेधस्तु 'भवादेसेणं दो भवग्गहणाई' भवादेशेन-भवापेक्षया द्वे भवग्रहणे 'कालादेसेणं जहन्नेणं तिन्नि पलिओवमाई पुन्चकोडीए अब्भहियाई कालादेशेन जघन्येन त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटया. निकों में उत्पन्न होता है, तब वह 'जहन्नेणं तिपलिओवमटिहएप्स' जघन्य से तीन पल्योपम की स्थितिवाले पश्चेन्द्रिय तियश्चों में उत्पन्न होता है और 'उक्कोसेणं वि तिपलिओवमट्टिइएसु' उत्कृष्ट से भी वह तीन पल्योपम की स्थितिवाले पञ्चेन्द्रियों में उत्पन्न होता है। 'अवसेसं तं चेव'
और बाकी के द्वारों का कथन यहाँ पूर्वोक्त कथन के जैसा ही है। 'नवरं परिमाणं ओगाहणा य जहा एयरसेव तहयगमए' परन्तु पूर्वोक्त कथन से यहां के कथन में परिमाण और अवगाहना को लेकर इस प्रकार से भिन्नता आती है कि यहां जघन्य से एक अथवा दो अथवा तीन जीव उत्पन्न होते हैं और उत्कृष्ट से संख्यात जीव उत्पन्न होते हैं। तथा इनकी अवगोहना उस्कृष्ट से एक हजार योजन प्रमाण होती है। काय. संवेध भव की अपेक्षा दो भवों को ग्रहण करने रूप है और काल की अपेक्षा वह जघन्य से पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम का है। तथा ત્રણ પલ્યોપમની સ્થિતિવાળા સંસી પંચેન્દ્રિયતિર્યચોમાં ઉત્પન્ન થાય छ. सन 'उकोसेणं वि तिपलिओवमद्विइएसु' थी त्रय पक्ष्या५मनी स्थिति पणा सज्ञी पयन्द्रियोमा अत्यन्न थाय छे. 'अवसेस तं चेव' माहीन द्वार समधी ४थन महियां पस॥ ४ थन प्रमाणे छे. 'नवरं परिमाणं ओगाहणा य जहा एयरसेव तइयगमए' ५२'तु ५९। ४ ४थन ४२di महिना थनमा પરિમાણ અને અવગાહના દ્વારના સંબંધમાં આ રીતે જુદાપણું આવે છે. કે–અહિયાં જઘન્યથી એક અથવા બે અથવા ત્રણ છે ઉત્પન્ન થાય છે. તથા તેની અવગાહના ઉત્કૃષ્ટથી એક હજાર એજન પ્રમાણની છે. કાયસંવેધ ભવની અપેક્ષાથી બે ભને ગ્રહણ કરવા રૂપ છે. અને કાળની અપેક્ષાથી તે જઘન્યથી પૂર્વકેટિ અધિક ત્રણ પયોપમને છે. તથા ઉત્કૃષ્ટથી પણ તે એક
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૫