Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीस्त्रे ऽपि संख्येयत्वासंख्येयत्वयो निराकरणपूर्वकमनन्तत्वमेव ज्ञातव्यमिति । कियत्प. यन्तमित्याह-'एवं जाव अच्चुर' एवं यावदच्युतकल्पे सौधर्माश्रितपरिमण्डलादि संस्थानविचारवत् अच्युतान्तकल्पे परिमण्डलादिसंस्थानविषयेऽपि सर्व ज्ञातव्यमिति 'गेवेज्जविमाणेसु णं भंते !' ग्रैवेयकविमानेषु खलु मदन्त ? 'परिमंडल. संठाणा०' परिमण्डलसंस्थानानि कि संख्येयानि असंख्येयानि अनन्तानि वेति प्रश्नः, उत्तरमाह -'एवं चेव' एवमेव यथा सौधर्मकल्पादिसम्बन्धिपरिमण्डलादि संस्थानविषये कथितं तथा ग्रैवेयकविमानेष्वपि परिमण्डलाधायतान्तसंस्थानेष्वपि अनन्तत्वमेव ज्ञातव्यमिति । 'एवं अणुत्तरविमाणेसु वि' एवमनुत्तरविमानेष्वपि. भी जानना चाहिये । अर्थात् यहाँ ये सब ५ पांचों ही संस्थान अनन्त ही हैं संख्यात अथवा असंख्यात नहीं हैं। 'एवं जाव अच्चुए' सौधर्मा. श्रित परिमंडल आदि संस्थानों के विचार के जैसे ही यावत् अच्युत कल्प में परिमंडल आदि पांचों ही संस्थान अनन्त ही हैं। संख्यात असंख्यात नहीं हैं। ऐसा जानना चाहिये। 'गेवेज्जविमाणेसु णं भंते ! परिमंडलसंठाणा' अब गौतम पुनः प्रभु से ऐसा पूछते हैं-हे भदन्त ! ग्रैवेयक विमानों में परिमंडल संस्थान क्या संख्यात हैं अथवा असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- एवं चेव' हे गौतम! जैसा सौधर्मकल्पादि सम्बन्धी परिमंडल आदि संस्थानों के विषय में कहा जा चुका है उसी प्रकार का कथन अवेयकविमानों में भी परिमंडल संस्थान से लेकर आयत संस्थान पर्यन्त कहना चाहिये अर्थात उन की अनन्तता जाननी चाहिये । अर्थात् प्रैवेयक विमानों में ये सब संस्थान ते ५ पाये संस्थानो मन छे. यात अभ्यात नथी. एव जाव अच्चुए' सीधभ६५न समयमा त परिभ वि३ सस्थानान। વિચાર પ્રમાણે જ યાવત્ અયુતક૯પમાં પરિમંડલ વિગેરે પાંચે સંસ્થાનો ५९ सनत ४ छ. सध्यात असण्यात नथी. 'गेवेजविमाणेसु णं भते । परिमडलस'ठाणा' हवे गौतमस्वामी शथा प्रसुने पूछे छे 3-3 लन् રૈવેયક વિમાનમાં પરિમંડલ સંસ્થાન શું સંખ્યાત છે? કે અસંખ્યાત છે? अथवा मनात छे १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ ।-‘एवं चेव गौतम । સૌધર્મક૫ વિગેરેના કથનના પ્રસંગે પરિમંડલ વિગેરે સંસ્થાનના વિષયમાં જે પ્રમાણેનું કથન કર્યું છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન શૈવેયક વિમાનોના સંબંધમાં પણ પરિમંડલ સંસ્થાનથી લઈને આયત સંસ્થાન સુધીના સઘળા સંસ્થાનોનું સમજવું અર્થાત્ તે સંસ્થાનું અનંતપણું જ સમજવું. અર્થાત્ ત્રૈવેયકવિમા
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૫