Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीले खल यत् तव घनवृत्तम् तत् द्विविध प्रज्ञप्तम् 'तं जहा' नद्यथा 'ओयपएसिए य जुम्मपएसिए ये ओजप्रदेशिकं च युग्मपदेशिकं च 'तस्थ णं जे से ओयपरसिए घणवहे नत्र खलु यत् तद् ओजपदेशिकं घनवृत्तम् 'से जहन्नेण सत्तपएसिए ससपएसोगादे पन्नते' तत् ओजनदेशिकं घनवृत्तम्, जघन्येन सप्तमदेशिकम् सप्तप्रदेशावगादं मजप्तम् 'उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे पन्नते' उत्कर्षेणाऽनन्त. पदेशिकमसंख्येयादेशावगाढं प्रज्ञप्तम् एतस्य स्थापना आ. नं.५ एकस्य .. मध्य भागस्थितस्य परमाणो नीचैरेका परमाणुः स्थापनीयस्तथोपरि एक .:. परमाणुः स्थापनीषः नथा तस्य चतुर्दिक्षु चत्वारः परमाणव स्थापनीया, आ. नं.५ असंख्यात प्रदेशों में इसकी अवगाहना होती है। 'तत्य जे से घण. व से दुविहे पन्नत्ते' इनमें जो घनवृत्त होता है यह दो प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे-'ओयपएसिएय, जुम्मपएसिए य' ओजप्रदेशिक
और युग्मप्रदेशिक 'तस्थणजे से ओयपएसिए घणवढे' इनमें जो ओज प्रदेशिक घनवृत्त है 'से जहन्नेण सत्तपएसिए सत्सपएसोगाढे पनत्ते' यह जघन्य से सात प्रदेशों वाला होता है और सात प्रदेशो में उसकी अधगाहना होती है। 'उक्कोसेण अणतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे' तथा उस्कृष्ट से वह अनत प्रदेशों वाला होता है, और असंख्यातप्रदेशों में इसकी अवगाहना होती है। इसका आकार संस्कृत टीका में
आकति नं. ५ से दिया है-यहां मध्य भाग में एक परमाणु की स्था पना और करनी चाहिये तथा उसके नीचे और ऊंचे एक एक परमाणु की स्थापना करनी चाहिये एवं उसकी चारों दिशाओ में
सरायके मन मसभ्यात प्रशाम तनी समाना थाय छे. 'तत्थ गंजे से घणवटे से दुविहे पन्नत्ते' मा २ धनवृत्त संस्थान छ त में प्रसार ta
2. 'तं जहा' त सा प्रमाणे छे-'ओयपएसिए य जुम्मपएसिए यो प्रश. पान युग्म प्रदेशवाणु २ 'तत्थ णं जे से ओयपएसिए घणवट्रे' तमोरे
यो प्रदेशवाणु धनवृत्त संस्थान थे, ते से जहन्नेणं सत्तपएसिए सत्तपएसोगाढे पन्नत्तेत न्यथा सात प्रदेशपाय छे. मने सात प्रशामा तेभनी
रना थाय छे. 'उक्कोसेणं अर्णतपएनिए अस खेज्जपएसोगाढे' तया ઉકષ્ટથી તે અનંત પ્રદેશેવાળું હોય છે અને અસંખ્યાત પ્રદેશોમાં તેની અવગાહના થાય છે, તેને આકાર સં. ટીકામાં આ૦ નં. ૫ માં બતાવેલ છે. અહીંયાં વચલા ભાગમાં એક પરમાણુની સ્થાપના કરવી જોઈએ. તથા તેની નીચે અને ઉપર એક એક બીજા પરમાણુ સ્થાપવા જોઈએ. અને તેની ચારે દિશાએ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫