Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवती सूत्रे
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कियत्पर्यन्तं वृत्तसंस्थानप्रकरणं ग्रहीतव्यं तत्राह - ' जाव' इत्यादि, अत्र यावत्पदेन 'तं जहा घणचउरंसे य पयरचउरंसे य तत्थ णं जे से पयरचउरंसे से दुविहे पनते वं जहा ओएसिए य जुम्मपएसिए य' इत्थं तस्य वृत्तसंस्थानप्रकरणस्य संग्रहः । 'तत्थ णं जे से ओपएसिए' तत्र खलु यत् तत् ओजम देशिकं चतुरस्र संस्थानम् 'से नेणं नवपरसिए नव परसोगाढे पन्नत्ते' तद् जघन्येन नवमदेशिक नवप्रदेशावगाढं प्रज्ञप्तम् अरुप स्थापनेत्यम् आ. नं. ११ 'उक्को सेणं अनंत एसिए असं खेज्जपएसो गाठे पन्नत्ते' उत्कर्षेणाऽनन्तमदेशिकम संख्येयमदेशावगाढं च प्रज्ञप्तम् इति । 'तत्थ णं जे से जुम्मपरसिए' तत्र खलु यत् तत् युग्ममदेशिकम् ' से जहन् नेणं चउपएसिए चउपरसोगाढे पत्ते' तत् जघन्येन चतुःप्रदेशिक चतुःपदेशावगाढं च भवति अस्य च स्थापना आ.नं. ११ घनचतुरस्र और प्रतर चतुरस्र ऐसे दो भेद हैं। 'जाव' इत्यादि यहां यावत् शब्द से 'तं जहा घणचउर से य पयरचउरंसे य' यही पाठ गृहीत हुआ है। 'तस्थ णं जे से पथरचउरंसे से दुविहे पनते' इनमें जो प्रतर चतुरस्त्र संस्थान है वह दो प्रकार का है। जैसे- 'ओयपएसिए य जुम्मएसिए य' ओजप्रदेशिक और युग्मप्रदेशिक 'तस्थ णं जे से ओयपरसिए' इनमें जो ओजप्रदेशिक - चतुरस्र चतुष्कोण - संस्थान है 'से जहन्नेणं नव पएसिए नव परसोगाढे' वह जघन्य से नौ प्रदेशों वाला होता है और आकाश के नौ प्रदेशों में उसका अवगाह होता है। इसका आकार सं. टीकामें आ० नं. ११ से दिया है 'उक्कोसेणं अनंतपएसिए असंखेज्जपएसो गाढे' और उत्कृष्ट से वह अनन्त प्रदेशों वाला होता है और आकाश के असंख्यात प्रदेशों में इसका अवगाह होता है 'तस्थ पां
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अमाणुना मे लेह हे. 'जान' इत्यादि' - अडींयां यावत् शब्दथी 'त' जहा' घणघर से पयरचउर से य' मा पाठे श्रणु उरायो छे. 'तत्थ णं जे से पयरचरसे से दुविहे पन्नत्ते' तेमां ने प्रतस्यतुरस संस्थान छे. ते प्र २नुं छे म 'ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य' सोन अहेशवाणु मने युग्भप्रदेशवाणु' 'तत्थ णं जे से ओयपएसिए' तेमां ने सोन प्रदेशवाणु यतुरस्र भेटते है यार भूषावाणु' संस्थान छे. 'से जहन्नेणं नव परसिए नव परसोगाढे' તે જધન્યથી નવ પ્રદેશાવાળું હાય છે, અને આકાશના નવ પ્રદેશમાં તેના અવ भाई (रडेवानु) थाय छे तेन आर सी टीम या. नं. ११ थी मतावेस छे. 'उक्कोसेणं अनं तपएसिए अस खेज्जपएसोगाढे' भने उत्सृष्टथी ते अनंत પ્રદેશેાવાળું હાય છે. અને આકાશના અસખ્યાત પ્રદેશેામાં તેના અવગાઢ હાય छे. 'तत्थ णं जे से जुम्मपरसिए' तथा तेमां ने युग्म प्रदेशवाणु यतुरस संस्थान
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫