Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसत्रे युग्मो न या द्वापरयुग्मो न कल्योजः किन्तु योजरूप एव भवतीति विशेषात 'अनुपएसिए जहा चउप्पएसिए' अष्टपदेशिको यथा चतुःपदेशिका, अष्टप्रदेशिका स्कन्धो नो योजो न द्वापरयुग्मो न कल्योजोऽपितु कृतयुग्ममात्र एव भवतीति चतुः शेषात् । 'णवपसिए जहा परमाणुपोग्गले' नवपदेशिकः स्कन्धः परमाणुवत कल्पोज एक न तु कृतयुग्मादिरूप इति दसपएसिए जहा दुप्पएसिए' दशपदेशिका स्कन्धो द्विपदेशिकरकन्धवत् द्वापरयुग्म एव भवति न तु कृतयुग्मादिरूप इति चतु: अत: उसे द्वापरयुग्मराशिरूप माना गया है। 'सत्तपएसिए जहा तिप्पएसिए' सप्तप्रदेशी स्कन्ध त्रिप्रदेशी स्कन्ध के जैसा व्योजराशिरूप ही होता है न वह कृतयुग्मरूप होता है और न वह द्वापरयुग्मराशि रूप होता है और न वह कल्योजराशिरूप होता है । क्यों कि सात संख्या में से चार का अपहार करने पर न चार बचते हैं न दो बचते हैं और न एक बचता है किन्तु तीन ही बचते हैं। इसलिये वह ज्योजरूप कहागया है। _ 'अट्ठपएसिए जहा चउपएसिए' अष्ट प्रदेशी स्कन्ध चतुः प्रदेशी स्कन्ध के जैसा कृतयुग्मरूप ही होता है। क्योंकि चार की संख्या से अपहृत होने पर उसमें से केवल ४ ही बाकी रहते हैं 'णवपएसिए जहा परमाणुपोग्गले' नौ प्रदेशों वाला जो स्कन्ध है वह परमाणुपुद्गल के जैसा कल्योजराशिरूप ही होना है । कृतयुग्मरूप अथवा योजरूप अथवा द्वापर युग्मरूप नहीं होता है । 'दसासिर खंधे जहा दुप्पएसिए' दशप्रदेशोंवाला स्कन्ध विप्रदेशी स्कन्ध के जैसा केवल द्वापर. રાશી રૂપ જ હોય છે. તે કૃતયુગ્મ રૂપ લેતા નથી તેમ તે દ્વાપરયુગ્મરાશિ રૂપ હોતા નથી તથા તે કજરાશિ રૂપ પણ લેતા નથી. કેમકે ૭ ની સંખ્યામાંથી ૪ ચારને અપહાર કરવાથી ૪ ચાર બચતા નથી. તેમ છે કે એક પણ બચતા નથી. પરંતુ ૩ ત્રણ જ બચે છે. તેથી તેને જ રૂ૫જ કહેલ છે.
_ 'अट्रपएसिए जहा चउप्पएसिए' 8 प्रवाणे २४५ यार महेशवाणा સ્કંધની જેમ કૃતયુગ્મ રૂપ જ હોય છે. કેમકે ચારની સંખ્યાથી અપહાર ४२साथी माथी १५ यार ०४ माडी २९ छे. 'णवपएलिए परमाणुपोग्गले' નવ પ્રદેશવાળ જે સ્કંધ છે. તે પરમાણુ પુદ્ગલના કથન પ્રમાણે કાજ રાશિ રૂપ જ હોય છે. કૃતયુગ્મ રૂપ અથવા જ રૂપ અથવા દ્વાપરયુગ્મ ३५ नथी. 'दसपएसिए खंधे जहा दुप्पएमिए' इस प्रशाणा २४५ मे. प्रश. વાળા સ્કંધના કથન પ્રમાણે કેવળ દ્વાપરયુગ્મ રાશિ રૂપ જ હોય છે. કૃત
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫